बराबर, एक समान और उचित
हिन्दी में 'बराबर' शब्द का अर्थ है 'एक समान'। इसलिए जब हम कहते हैं कि पाँचों
उंगलियाँ बराबर नहीं होतीं तो सीधा-सा अर्थ यह होता है कि हर उंगली (या अंगुली) का
आकार-प्रकार और प्रकृति अलग-अलग होती है। कहावत का अभिप्राय यह है कि सब लोग एक
जैसे नहीं होते, यानी सबमें पारस्परिक भिन्नता होती है। बराबर शब्द बर और अबर यानी
वर और अवर से बना प्रतीत होती है। जब हम इस शब्द का विग्रह करते हैं तो इसका पूरा
अर्थ उद्घाटित होता है। वर यानी श्रेष्ठ और अवर यानी अश्रेष्ठ। जब कोई श्रेष्ठ
अथवा अश्रेष्ठ न हो, यानी जब अच्छे और बुरे का, छोटे और बड़े का, कम और बेशी का
भेद समाप्त हो जाए तब जो स्थिति निर्मित होती है, उसे कहते हैं बराबर। इस दृष्टि
से बराबर या बराबरी का भाव बड़ी ही लोकतांत्रिक, या यों कहें कि साम्यवादी भाव
प्रतीत होता है।
इस दृष्टि से 'बराबर' शब्द में कोई अर्थ-चमत्कार नहीं है।
किन्तु मराठी और गुजराती के 'बरोबर' में इस शब्द का अर्थगत चमत्कार साफ दिखाई देता
है। वहाँ 'बरोबर' हिन्दी के बराबर का
ही परिवर्तित रूप है, किन्तु उसका अर्थ 'एक समान' न होकर उचित' और 'न्याय-संगत' है। इस दृष्टि से 'बराबर' का अर्थ हुआ, जो बिलकुल न्यायोचित हो,
जिसमें किसी के साथ कोई भेद-भाव न करते हुए, तार्किक और न्यायौचित्य की दृष्टि से
बिलकुल सही बात कही गई हो। गुजराती लोग प्रायः कहते हैं- बरोबर कथ्यू, यानी बिलकुल
सही कहा। यदि वे पूछना चाहते हैं कि ठीक है न या उचित है न तो वे कहते हैं- बरोबर
छे न। मराठी-भाषी भी बरोबर शब्द का उपयोग इसी अर्थ में करते हैं।
हिन्दी में बर का अर्थ है तगड़ा या मज़बूत। कई
बार गरिष्ठ भोजन के लिए भी इसका इस्तेमाल होता है। जब कोई भोज्य पदार्थ इतना
सुस्वादु, तैलीय और गरिष्ठ हो कि उसके दो-चार निवाले खाने के बाद ही मन भर जाए तो कहते हैं कि अमुक-अमुक भोज्य-पदार्थ
बहुत जब्बर बना है। बहुत तगड़े बकरे, बैल आदि को भी जब्बर विशेषण दिया जाता है।
शायद यह शब्द हिन्दी में संस्कृत के वर से आया होगा, जिसका अर्थ होता है श्रेष्ठ।
हिन्दी प्रान्तों में कहावत मशहूर है- जबरा मारे और रोने भी न दे। यानी तगड़ा आदमी
अपने से दुर्बल को सताता भी है और फरियाद भी नहीं करने देता। जबरा या जब्बर शब्द
बर (वर) का ही विस्तार है। अर्थ दोनों का एक ही है- सशक्त, बलवान, सामर्थ्यवान
आदि। इसका विपरीतार्थी शब्द है अब्बर (अवर), यानी जो दुर्बल हो, कमज़ोर हो,
क्षीण-शक्ति हो। अब्बर आदमी को अकसर जब्बर आदमी दबा लेता है, उसका हक मार लेता है,
उसका स्वत्व छीन लेता है।
जब अब्बर यानी पीड़ित पक्ष न्यायालय के समक्ष
पहुँचता है और जब्बर से अपनी रक्षा की गुहार लगाता है तो न्यायालय क्या करता है?
वह पूरे मामले को
तर्क की कसौटी पर कसता है। न्याय की देवी के हाथ में तराजू है। उसमें दोनों पक्षों
के तर्क, न्याय की रौशनी में तौले जाते हैं। फिर न्याय की मूर्ति फैसला सुनाती है।
यह फैसला न बर के पक्ष में होता है न अब्बर के पक्ष में। फैसला होता है 'बराबर' यानी बर (जब्बर) और
अब्बर, दोनों के लिए न्यायोचित। इस 'बराबर' यानी न्यायोचित फैसले के बारे में कोई यह नहीं
कह सकता कि फैसला अनुचित रहा।