राजभाषा कार्यान्वयन
के कर्णधार
डॉ. आर.वी. सिंह
उनका नाम बताने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होनेवाला- इसलिए फिलहाल
नाम रहने दें। पदनाम बता सकता हूँ। वैसे भी पदनाम को स्थिर रखते हुए, नाम बदलते
रहें तो प्रायःएक-सी ही स्थिति निर्मित होती है और एक जैसा ही बिम्ब मस्तिष्क
में उभरता है।
मैं उन दिनों भोपाल में कार्यरत था। वे वहाँ उपनिदेशक (राजभाषा कार्यान्वयन) थे। नये-नये आये तो
सुना कि बड़े विद्वान आदमी हैं, कवि हैं, बहुत अनुभवी हैं, सज्जन हैं। स्वाभाविक जिज्ञासावश (जो हिन्दी अधिकारियों में
कुछ ज्यादा ही होती है) मैंने फोन पर उनसे संपर्क किया। फिर एक दिन साक्षात् मिलने
ही पहुँच गया। वे बड़े तपाक से मिले। विजिटिंग कार्डों का आदान-प्रदान हुआ।
उनके कार्ड पर एक नज़र डालते ही मन आश्चर्य-मिश्रित श्रद्धा से भर
आया। तीन-तीन विषयों में एम.ए., दो में पीएच.डी., डी.लिट.। कई विदेशी भाषाओं में डिप्लोमा और न जाने क्या-क्या! उनके बारे
में और अधिक जानने की इच्छा हुई तो पूछ ही डाला। पता चला कि दिल्ली के एक बड़े नामचीन
विश्वविद्यालय में रीडर भी रहे हैं। राष्ट्रीय स्तर के कवियों में गणना होती है। ढेरों
सम्मेलनों में जाते हैं और प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में बराबर छपते
हैं। ऐसे महान व्यक्ति से मिलकर हम धन्य हो गये। चलते-चलाते अनुरोध कर आए- ‘‘महोदय, कभी हमारे
कार्यालय में पधारें।'' ‘‘हाँ-हाँ, क्यों नहीं! अब तो आना-जाना लगा ही
रहेगा।'' कहते हुए उन्होंने
पान से गलगलाते कंठ से अपनी मधुर सुर-सुधा का संधान किया और हमें दरवाज़े तक छोड़ने के लिए उठ आये।
ऐसी सौम्यता! ऐसा सौजन्य! वाह! ये तो मनुष्य के रूप में कोई देवदूत हैं। कुछ इसी प्रकार के
मनोभावों से भरे हुए हम उनके कार्यालय से लौटे।
हफ्ता भर भी नहीं बीता था कि उनका शासकीय पत्र आ गया। अमुक-अमुक तारीख
को आपके कार्यालय में राजभाषा कार्यान्वयन का निरीक्षण है। हमारे कार्यालय के प्रशासनिक
प्रमुख ने तुरन्त एक विशेष बैठक बुलवायी और निरीक्षण के लिए अपेक्षित सारी तैयारी की
विस्तृत रूपरेखा तैयार करा डाली। एक-एक पहलू पर बारीकी से विचार हुआ। हमने सारे दस्तावेज, फाइलें और
अन्य कागजात व्यवस्थित कर लिए। कार्यालय के साइन बोर्ड, सूचना पट्ट, रबर मुहरें, फाइलों व रजिस्टरों
के शीर्ष, आवक-जावक रजिस्टर, लेजर आदि सभी रिकार्ड ऐसे व्यवस्थित कर लिए कि निरीक्षण कार्य
निर्बाध पूरा हो सके। प्रतिदिन एक हिन्दी शब्द सीखिए योजना का और भी मुस्तैदी से पालन
होने लगा। हिन्दी समर्थन में जो पोस्टर इधर-उधर चस्पा थे, उनको बदलकर
और भी सुरुचिपूर्वक कुछ नये पोस्टर लगा दिए गए। कहीं कोई झोल न रह जाए, इस बात का
पूरा ध्यान रखते हुए निरीक्षण योग्य हर पहलू पर गौर करने के बाद पूरी व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त कर
दी गयी। निरीक्षण के बहाने ही सही, कार्यालय का वातावरण पूरी तरह हिन्दीमय हो आया।
अंततः निरीक्षण की तारीख आ गयी। सीट पर बैठते ही उनके कार्यालय
से फोन आ गया। उनका स्टेनो बोल रहा था- ‘‘साहब आज बारह बजे आएँगे। आप उनके लिए गाड़ी भेज दीजिएगा।'' हमारी तैयारी पूरी थी। फिर भी अभी निरीक्षण में दो घंटे का
समय है, यह जानकर जान में जान आयी। एक बार फिर पूरी स्थिति का जायजा ले
लिया कि यदि भूल से कहीं कोई कमी रह गयी हो तो उसे दुरुस्त कर लें। सारी व्यवस्था एकदम
ठीक थी, यहाँ तक कि प्रशासनिक अधिकारी ने निरीक्षणकर्ता को देने के लिए
एक उपहार भी पैक कराके, कार्यालय-प्रमुख के केबिन में रखवा दिया था।
यद्यपि उपनिदेशक का कार्यालय हमारे यहाँ से मुश्किल से 400 मीटर की दूरी
पर था, फिर भी एहतियात के तौर पर हमने पौने बारह बजे ही गाड़ी भिजवा दी।
प्रमुख ने बहुत कहा कि किराए की टैक्सी मँगवा लीजिए, किन्तु हम फिजूलखर्ची के
खिलाफ हैं। वैसे भी कुल जमा आठ सौ मीटर की यात्रा के लिए किराए पर टैक्सी मँगाने का
क्या तुक! सो हमने उन्हें शान्त करा दिया-‘‘नहीं सर, उनका दफ्तर
तो यहीँ पास में ही है। बस एक बार जाना-आना ही तो है। अपनी ऑफिस कार से ही मैनेज हो जाएगा।'' सौम्य-सज्जन प्रमुख चुप लगा गये। दरअसल उनको दो बजे की फ्लाइट पकड़कर, एक विशेष बैठक
के लिए दिल्ली जाना था।
गाड़ी भेजे करीब चालीस मिनट हो गये तो हमें चिन्ता सताने लगी।
जल्दी-जल्दी हमने नीचे से स्कूटर उठाई और उनके कार्यालय जा पहुँचे। वहाँ
हमारी संस्था की कार नहीं दिखी तो और भी चिन्ता हुई कि कम-अक्ल ड्राइवर कहीं और तो
नहीं पहुँच गया। आनन-फानन में ऊपर पहुँचकर जो सामने दिखा, उसी से पूछताछ
करने लगे। स्टेनो ने बड़ी भेदभरी मुस्कान बिखेरते हुए स्वागत किया- ‘‘आइए-आइए, सर। साहब बस
निकलने ही वाले हैं ।'' ‘‘हमने गाड़ी
भेजी थी। लगता है, अभी तक पहुँची नहीं।'' हमारी बौखलाहट देखकर उसने खीसें निपोर दीं- ‘‘नहीं-नहीं, गाड़ी तो आपकी
पौने बारह बजे ही आ गयी थी। साहब ने किसी और को लाने के लिए भेजी है। बस उन्हीं का
इन्तजार है।'' अब जाकर हमें माजरा कुछ-कुछ समझ आने
लगा था। जो कुछ घटित होने जा रहा था, उसकी कल्पना करते-करते हमारा रक्तचाप बढ़ने
लगा। उपनिदेशक को सौजन्य देने के फेर में हमने अपने भाग्य-नियन्ता बॉस का ही सौजन्य
बिगाड़ डाला- हाय! हमने यह क्या नादानी की! बॉस का कहा मानकर, किराए की कार
मँगा ली होती तो ऐसी कठिन परिस्थिति न पैदा होती। यहाँ एक बजनेवाला है और कार का पता
नहीं। आज तो बॉस की फ्लाइट गयी।
शायद उपनिदेशक महोदय एक कान हमेशा मुख्य द्वार पर लगाए रखते
थे। हमारी बातचीत की भनक उनको भी लग
चुकी थी। उन्होंने बहुत प्रेम से हमें भीतर बुलाया और बैठने का न्यौता दिया। अपने मनोभावों
को जबरन दबाकर हम बैठ गए। हमारे आँख-कान बाहर लगे थे। उपनिदेशक से हमारी क्या बातचीत हुई, कुछ भी याद
नहीं। आखिर पाँच मिनट बाद बाहर कार रुकी, दरवाजा खुलने-बंद होने की आवाजें आयीं। कुछ क्षणों बाद एक महिला ने उपनिदेशक
महोदय के कक्ष में कदम रखे। ‘‘आइए-आइए। हम लोग आपही का इन्तजार कर रहे थे।'' उप निदेशक ने उन महिला का परिचय किसी कवयित्री के रूप में कराया
जो सरकारी टेलीफोन विभाग में कार्यरत थी। उस सुदर्शना युवती पर ध्यान देने की हममें
ताब नहीं थी, इसलिए सौजन्यवश जो भी करणीय था, उससे अधिक उत्सुकता हमने
नहीं दिखायी। गाड़ी में वे दोनों बैठे और आगे-आगे हम अपनी स्कूटर पर
उनकी अगवानी करते अपने दफ्तर आए।
एक के बजाय दो मेहमानों के पहुँच आने पर प्रशासनिक अधिकारी
थोड़ा विचलित हो आये- क्योंकि उन्होंने तो एक ही उपहार की व्यवस्था की थी। लेकिन
निरीक्षणकर्ता बड़े प्रफुल्लित दिख रहे थे। पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार प्रमुख
ने पुष्प-गुच्छ से दोनों मेहमानों का स्वागत किया और अगवानी करके अपने केबिन
में लिवा ले गये। साधारण जलपान के बाद हम उम्मीद कर रहे थे कि उप निदेशक हमारे कामकाज
का जायजा लेंगे, कागजात और फाइलें, रजिस्टर आदि देखेंगे। समीक्षा करेंगे। कुछ जरूरी सुझाव देंगे।
उत्साही होंगे तो स्टाफ को संबोधित करेंगे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। उनकी ओर से कोई
पहल न होती देख हमने ही हिम्मत जुटाई- ‘‘आइए सर, आपको अपना हिन्दी का कामकाज दिखा दूँ।'' उन्होंने बड़े निर्विकार भाव से हाथ हिलाते हुए मना किया-‘‘अरे, आइए बैठिए।..आपका क्या
निरीक्षण! आप जैसा विद्वान राजभाषा अधिकारी जहाँ हो, वहाँ भला कोई
कमी रह सकती है!! बस आप तो वह प्रारूप भरकर दे दीजिए जो हमारे पत्र के साथ आपको
मिला था और खाली प्रारूप की बीस फोटो प्रतियाँ दे दीजिए।'' हमने पहले से भरी हुई रिपोर्ट और खाली प्रारूप की बीस प्रतियाँ
फोटो कॉपी कराकर उनको सौंप दीं।
‘‘आपके यहाँ से जबलपुर फोन हो सकता है? '' उन्होंने प्रमुख
की टेबल पर रखे फोन पर हाथ फिराते हुए पूछा। ‘‘हाँ-हाँ, क्यों नहीं।
शौक से कीजिए।'' प्रमुख ने फोन को अनलॉक
करते हुए कहा और फोन उनकी ओर सरका दिया। साथ ही, बैठक में भाग लेने की विवशता
बताते हुए वे उठ खड़े हुए और हम सबको आवश्यक निर्देश देकर एयरपोर्ट के लिए निकल पड़े।
‘‘आप निश्चिन्त होकर जाएँ, हमारी चिन्ता न करें। '' उप निदेशक ने प्रमुख को आश्वस्त किया और टेलीफोन के की-पैड पर उंगलियाँ
नचाने लगे।
आधा घंटा इधर-उधर की बातें करने और उपनिदेशक की फोन-चर्या में
निकल गया। जब दो बजने को आए तो हमने उनसे आग्रह किया- ‘‘सर, चलिए। हमारे
लाउंज में आपके भोजन की व्यवस्था है। कुछ खा-पी लिया जाए।'' उन्होंने तत्परता से फोन बन्द किया और उठते हुए बोले- ‘‘हाँ-हाँ, चलिए।'' दोनों व्यक्तियों
से साहित्य-चर्चा और आजकल के हालात पर तप्सरा करने की प्रक्रिया में लगभग
ढाई-पौने तीन बज गये। पान-तंबाकू के प्रति उनका विशेष
रुझान देखकर हमने समुचित व्यवस्था कर रखी थी। लिहाजा मुँह में पान दबाए जब वे लौटकर
कार्यालय-प्रमुख के कक्ष में जमे तो फिर हमारे मन में उम्मीद जगी कि अब शायद दिमाग
के कपाट खुलें और उप निदेशक महोदय निरीक्षण की वास्तविक कार्रवाई आरंभ करें।
लेकिन हमारी आशा के ठीक विपरीत वे उठे और संगिनी को भी चलने
का इशारा करते हुए बोले- ‘‘तो अब इजाजत दीजिए। आपकी रिपोर्ट हम जल्द ही भेज देंगे।''
हम सब भी उनके साथ ही उठ खड़े हुए। प्रशासन-प्रमुख ने दोनों
व्यक्तियों को धन्यवाद देते हुए उनके उपहार पकड़ाए और जबर्दस्ती की मुस्कान ओढ़ ली।
दोनों जनों को जैसे हम लाए थे, वैसे ही गाड़ी तक छोड़ने गए। गाड़ी एयरपोर्ट से वापस आकर पोर्टिको
में खड़ी थी। आगे बढ़कर हमने पहले महिला अतिथि और फिर उपनिदेशक महोदय के लिए गाड़ी
का दरवाजा खोला तो बैठते हुए वे बोले- ‘‘लाइए, कुछ देना हो तो दे दीजिए।''
हम इस स्थिति के लिए तैयार नहीं थे। हमने हाथ जोड़ लिए- ‘‘सर, हमारा जो कुछ
है, सब आपका है। इस समय क्षमा चाहते हैं। अगली बार जरूर ध्यान रखेंगे।''
‘‘अरे नहीं, नहीं, हम तो यूं ही कह रहे थे।...अच्छा अब चलते हैं। नमस्कार।..चलो ड्राइवर।'' उन्होंने हमारे
ड्राइवर को आदेशात्मक लहजे में कहा और शीशे चढ़ा लिए।
* * * *
चलते-चलाते उनके हाथ में कुछ न पकड़ा पाने का मलाल हमें हमेशा रहा।
रहीम का दोहा बार-बार मन में गूँजता- तिनते पहले वे मुए, जिन मुख निकसत
नाहिं। जब भी मुलाकात होती, पूछ ही लेते- ‘‘सर, हमारे लायक कोई सेवा हो तो बताइए।''
बहती गंगा में हाथ धोना उनको खूब आता था। तिसपर न जाने कैसे
उन्हें पता चल गया था कि हम हिन्दी में टाइप खूब अच्छा कर लेते हैं। ऐसा विद्वान्,
युनिवर्सिटी टॉपर, परिश्रमपूर्वक खुद थीसिस लिखकर पीएच.डी. की बिलकुल
असली डिग्री हासिल करनेवाला हिन्दी टाइपिस्ट उन्हें कहाँ मिलने वाला था! दो वर्ष की
अवधि में जब भी उन्हें अपने लेख टाइप करवाने की जरूरत पड़ी, उन्होंने निस्संकोच
हमें याद किया। पूरे वर्ष की साहित्यिक गतिविधियों, जयंतियों, पुरस्कारों, समारोहों, शोक-सभाओं के बारे
में वे जानकारी जुटाते और जनवरी के शुरू में किसी प्रतिष्ठित अखबार के पूरे एक पन्ने
में उनका यह सूचनापरक लेख छपता। हमें गर्व होता है यह बताते हुए कि कम से कम दो वर्ष
इस लेख का टंकण हमने किया।
* * * *
कानपुर और लखनऊ के बीच में एक जिला पड़ता है, उन्नाव। कहते
हैं कि ये उपनिदेशक वहीं के रहनेवाले थे। निरीक्षण हो या गंभीर से गंभीर कार्यक्रम।
वे जीन्स-टी शर्ट में पहुँच जाते। लगभग पचपन वर्ष की बेडौल काया पर भी यही
पोशाक पहनने का उनका शौक उचित था या अनुचित, ये तो वे जानें या उनका
पैतृक विभाग। उनके पास बिना गीयर वाली एक स्कूटर थी। उसी पर भोपाल से निकलते और रास्ते
में जितने भी सरकारी दफ्तर मिलते, सबका निरीक्षण (!)
करते हुए दूसरे दिन (जो प्रायः
रात को 11-12 बजे समाप्त होता) उन्नाव पहुँच जाते। वापसी में दूसरा रूट पकड़ते और उन्नाव से
भोपाल तक के बाकी कार्यालय भी निपटा डालते। अपने कार्यकाल में उन्होंने दो बार हमारे
कार्यालय का निरीक्षण किया। हर बार उनके साथ कोई न कोई महिला होती। एक बार हिन्दी दिवस
पर मुख्य अतिथि के रूप में पधारे। राजभाषा के अलावा सभी बातें की। कविताएँ सुनाईं और
महिला से लोक-गीत गवाया। दोनों ने उपहार लिए और ससम्मान प्रस्थान किया।
इसमें शक नहीं कि उप निदेशक महोदय सचमुच विद्वान थे। उनकी पहुँच
राजभवन तक थी। काव्य-मर्मज्ञ एवं साहित्य-रसज्ञ महामहिम को भी कविताएँ
सुना आते, और अगली मुलाकात में खूब प्रेम से सबको वहाँ के किस्से सुनाते।
सरकारी रवायत के अनुसार एक बार उन्होंने क्षेत्रीय राजभाषा
सम्मेलन आयोजित कर डाला। पश्चिम क्षेत्र में उन दिनों कोई उप निदेशक नहीं थे, इसलिए वहाँ
की कमान भी इन्हीं के हाथ में थी। लिहाजा संयुक्त राजभाषा सम्मेलन भोपाल में ही आयोजित
हुआ। केद्र सरकार के आला अधिकारियों और मुम्बई के पदाधिकारियों के अलावा भोपाल के भी
नामी-गिरामी अधिकारी जुटे थे। सम्मेलन के सभी नामपट कंप्यूटर पर तैयार
करने और प्रिंट आउट निकालने का दायित्व हमारे जिम्मे आया। तब तक उप निदेशक को एक अनुसंधान
अधिकारी की सेवाएं भी मुहैया करा दी गयी थीं। अनुसंधान अधिकारी ने हमें फोन किया और
पूछा-‘‘आप दो दिन के इस सम्मेलन में क्या सहयोग करेंगे? '' ‘‘जी मैंने नामपट्टिकाएं बना दी हैं, और जो आप बोलेंगे वह मैं
करने को तैयार हूँ।'' ‘‘ठीक है, मैं अभी अपने
स्टेनो को कुछ कागज देकर भेज रहा हूँ। आप उनको फैक्स करा दीजिए। कुछ रिपोर्टों की फोटोकापियाँ
करा दीजिए। और एक दिन का लंच प्रायोजित करा दीजिए।'' उन्होंने किंचित् आदेशात्मक लहजे में कहा।
पहली दो मदों में अधिक उलझन नहीं थी। एक में टेलीफोन का बिल
बढ़ने वाला था, दूसरे में फोटोकॉपियर का। दोनों मदों को कार्यालय स्तर पर संभाला
जा सकता था, किन्तु तीन-चार सौ आदमियों का लंच प्रायोजित करने का मतलब था कम से कम
पचास हजार रुपये का प्रावधान, जो प्रधान कार्यालय की अनुमति के बिना असंभव था। परिस्थिति
की गंभीरता का आकलन करते हुए हमने कहा- ‘‘पहली दो चीजें तो स्थानीय स्तर पर हो जाएँगी, किन्तु लंच
के प्रायोजन का खर्च लंबा होगा, उसके लिए हमें प्रधान कार्यालय से अनुमति लेनी होगी। यदि आपकी
ओर से कोई लिखित सूचना मिल जाती तो उसके आधार पर हम अनुमति ले लेते।''
वे कुछ खिन्न हो आए -‘‘लिखित सूचना देना तो संभव
नहीं है।''
‘‘फिर तो सर, कठिन हो जाएगा।'' हमने भी अपनी
लाचारी दिखायी।
‘‘देख लीजिए, अगर आपको शील्ड चाहिए, तो इतना तो करना ही होगा।'' कहकर उन्होंने फोन काट दिया।
शाम को उनका आदमी आकर लगभग तीस-चालीस जगहों पर अपनी चिट्ठियाँ
फैक्स कर गया और लगभग हजार पेज फोटोकॉपी करा ले गया।
सम्मेलन बहुत सफल रहा। मुम्बई के अनुसंधान अधिकारी हमारे बचपन
के मित्र निकले। बातों ही बातों में उन्होंने उप निदेशक का गुणगान शुरू कर दिया। पता
चला कि भोपाल के एक स्थानीय मुद्रक के आने पर उपनिदेशक महोदय ने केबिन में बैठे इन
अनुसंधान अधिकारी से आग्रह किया था-‘‘ आप जरा बाहर बैठेंगे, मुझे प्रिंटर से कुछ बातें
करनी हैं।''
पता चला कि नाम पट्टिकाएँ, निमंत्रण पत्र, फोटोकॉपी, बाइंडिंग, फैक्स, फोन, चाय-नाश्ता, अल्पाहार, भोजन, आवास सब कुछ
स्थानीय सरकारी कार्यालयों व उपक्रमों से प्रायोजित कराए जाते हैं और उनके बिल सरकारी
अभिलेखों में दिखाकर लाखों रुपये की बंदरबाँट हर सम्मेलन में हो जाती है। सरकारी कार्यालय
और उपक्रम भी इस तरह का आर्थिक बोझ सहर्ष सह लेते हैं, क्योंकि अगले सम्मेलन में
उनके प्रशासनिक प्रमुख को किसी बहुत पहुँचे हुए मंत्री, देश के अग्रणी बैंक के
सर्वोच्च अधिकारी या बड़े प्रशासनिक अधिकारी के हाथों राजभाषा कार्यान्वयन शील्ड ग्रहण
करने का सुअवसर मिल जाता है। अखबारों में फोटो छपते हैं। विभाग में नाम होता है। बड़े
लोगों से मिलने, जान-पहचान बढ़ाने और चमकने का मौका मिलता है। कई बार दूसरे शहर
जाकर पुरस्कार ग्रहण करना होता है तो टीए-डीए भी बन जाता है। सुना
कि उस वर्ष जिस बैंक को प्रथम पुरस्कार मिला उसने उप निदेशक या अनुसंधान अधिकारी में
से किसी को रंगीन टेलीविजन भेंट किया था। स्थानीय बैंक नराकास का काम सर्वोत्तम रहने
पर भी उसे कभी शील्ड मयस्सर नहीं हुई, क्योंकि उसने न लंच प्रायोजित किया, न महँगे उपहार किसी को
दिए।
* * * *
पता नहीं क्या हुआ कि बिना किसी को बताए और बिना किसी विदाई
समारोह की शोभा बढ़ाए उप निदेशक महोदय क्षेत्रीय कार्यान्वयन कार्यालय के साथ-साथ भोपाल
को भी श्रीहीन कर गये। उनके बाद अनुसंधान अधिकारी ही सर्वेसर्वा हो गये। अब वे ही निरीक्षण
करते और विभिन्न कार्यक्रमों की शोभा बढ़ाते। लंबे, गोरे-चिट्टे और
अपेक्षाकृत युवा अनुसंधान अधिकारी सज-धज कर कार्यक्रमों में जाते। उप निदेशक की तरह वे जीन्स टी-शर्ट नहीं, बल्कि प्रायः
सफारी सूट अथवा मौसम के हिसाब से पैंट कोट पहनते और टाई लगाते। इससे पहले वे हिन्दी
प्राध्यापक रह चुके थे। लिहाजा सुनाने के लिए उनके पास संस्मरण भी उसी विषय से संबंधित
थे। अंग्रेजी के ओ में आई सटाकर लिखो फिर सी को उसके साथ उल्टा लिख दो तो देवनागरी
का क बन जाता है। इसी तरह उन्होंने भुवनेश्वर में लोगों को हिन्दी लिखना सिखाया था।
हर जगह वे यही संस्मरण लोगों को सुनाते और लोग तालियाँ बजाते- वाह, साहब की क्या
ही मौलिक उद्भावना है!! एक बार हमने इनको एक हिन्दी कार्यशाला में आमंत्रित कर लिया, विषय था- भारत सरकार
की राजभाषा नीति। हम बड़ी उम्मीद लगाए बैठे थे कि अनुसंधान अधिकारी कोई बड़ी अनुसंधानपरक
बात बताकर हमारा ज्ञानवर्धन करेंगे। उन्होंने सामान्य राम-रमौवल और परिचय के बाद
प्रतिभागियों को चमत्कृत कर दिया। बोले- ‘‘राजभाषा नीति के बारे में क्या बताना, वो तो आप लोग
जानते ही हैं। मैं आपको बताता हूँ कि इंगलिस के माध्यम से हिन्दी कैस्से सिक्खी जा
सकती है।'' इसके बाद वही हुआ, जिसका डर था
और जिसका चर्चा हम ऊपर कर आए।
सरकारी कर्मचारियों में और कुछ चाहे हो या न हो। वे नौकरी लगने
के बाद से साठ वर्ष की उम्र पूरी होने तक, बिना कोई काम किए, बड़े धैर्य-पूर्वक रिटायर
होने की प्रतीक्षा करते रहते हैं। यह धैर्य ही सरकारी कर्मचारियों की सबसे बड़ी पूँजी
और क्वालिटी होता है। हमारे सहयोगियों ने इसी पूँजी के बल पर उनका सत्र झेला। अंत में
हमने अपने कार्यालय प्रमुख से उनको मानदेय दिलवाया और नगर के एक नामी होटल में खाना
खिलाने के लिए बाहर निकले। कार में बैठकर उन्होंने कहा- ‘‘खाना तो मैं
हर रोज घर जाकर, वाइफ के साथ ही खात्ता हूँ। आप ऐसा कीजिए, जो पैसा आप
वहाँ खर्च करनेवाले थे, वो मुझे दे दीजिए, और समझ लीजिए कि आपने मुझे
होटल में खाना खिला दिया।''
हमें इसमें क्या आपत्ति हो सकती थी। हमने मान्य अतिथि की इच्छा
का पालन किया और ड्राइवर को उनके घर तक पहुँचाने का आदेश देकर लौट आया।
बाद में सुना उपनिदेशक की नौकरी चली गयी, अनुसंधान अधिकारी
की जिंदगी। भगवान से प्रार्थना है कि दोनों की आत्मा को यथा-स्थान शांति
दे और उनके बारे में सब कुछ सच-सच लिख देने का घोर अपराध करने के लिए हमें कोई सजा न दे, क्योंकि
ईमानदार हिन्दी अधिकारी बनने की सजा हम रोज पाते हैं। तिसपर दिक्कत ये कि सच बोलने
की अपनी आदत से मजबूर हैं। करें तो क्या! राजभाषा कार्यान्वयन के कर्णधारों में से बहुतों की यही सच्चाई
है। इन बहुतों में वे भी शामिल हैं जिनकी कल्पना सभी समझदार और विज्ञ पाठक सहज ही कर
सकते हैं।
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