भात और चावल
दिल्ली
के ज्यादातर बच्चों को भात और चावल का अन्तर नहीं मालूम होगा। लेकिन पूरब के गाँवों
का बच्चा- बच्चा जानता है कि भात वह चावल है, जिसे उबालकर खाने के लिए पका लिया
गया है। यानी राँधा हुआ चावल, पका हुआ चावल भात है। वह भी सादा चावल। यदि उसमें
थोड़ी दाल मिलाकर, नमक डाल कर उबाल लिया गया है तो वह बन गया खिचड़ी। खिचड़ी, यानी
जिसमें एक से अधिक चीज़ें मिल गई हों।
भात का
अपना सामाजिक-सांस्कृतिक महत्त्व है। हिन्दी-भाषी प्रान्तों में भात सामाजिक
भाई-चारे और अनुमोदन, समर्थन आदि का प्रतीक है। किसी लड़के-लड़की की शादी हो तो
आस-पास के लोगों, रिश्ते-नाततेदारों को भात खिलाना पड़ता है। जो लोग भात खाने आ
गए, समझिए वे सभी खिलानेवाले के समर्थक
हैं, उसके सुख-दुख के साथी हैं। यदि किसी से कोई गलती हो गई हो तो उसके प्रायश्चित
का उपाय है भात। अपने जाति-बिरादरी वालों, अपने समाज और रिश्तेदारों को भात दे दो,
गलती की माफी मिल जाएगी। गलती किसी भी तरह की हो सकती है। पंचायत तय करती है कि
भात देने से बात बनेगी या नहीं। हाँ, बहुत भयानक गलती हो तो पंचायत भी मामले में
हाथ नहीं डालती। गाँव वालों की गलती भी कई बार ऐसी होती है जो कानून के दायरे में
नहीं आती। मसलन किसी की वयस्क बेटी ने किसी गैर जाति वाले वयस्क लड़के के साथ
भागकर विवाह कर लिया हो। कानूनन तो यह ठीक है, किन्तु बिरादरी नहीं मानती। इस गलती
का तोड़ है भात। लड़की का बाप अपनी बिरादरी के लोगों को भात दे दे, यानी उनकी दावत
कर दे तो गलती माफ कर दी जाएगी और परिवार को जात-बाहर नहीं किया जाएगा।
लड़की
के मामा का दायित्व है भात देना, यानी जब लड़की (भानजी) की शादी हो तो कम से कम एक
दावत का इन्तज़ाम करना। इसलिए लड़की के मामा होना ज़रूरी है। मामा न हुआ तो भात
कौन देगा? पश्चिम
उत्तर प्रदेश में इसे भात भरना भी कहते हैं।
पूर्वी
भारत में भात स्टैपल डाइट यानी मुख्य भोजन होता है। भात नहीं तो भोजन नहीं। आंध्रा
आदि का भी यही हाल है। वहाँ चावल को अन्नम कहते हैं। अन्नम खा लीजिए, यानी भोजन कर
लीजिए। आंध्रा का आदमी व्रत करता है तो रोटी खा सकता है। रोटी वहाँ मुख्य भोजन
नहीं है।
शहर का
आदमी कहता है चावल की खेती। गलत। खेती तो भइया धान की होती है। धान को कूट लो,
उसकी भूसी उतार लो तो अन्दर से जो दाना मिलता है, वह है चावल। यदि धान को हलका
उसीन लें, यानी भाप में उबाल लें और सुखाकर कूटें तो मिलता है उसिना चावल, या
भुजिया चावल। इसी को लोग सेला चावल भी कहते हैं। यह खाने में स्वादिष्ट किन्तु
पचने में थोड़ा गरिष्ठ होता है। बनता फर्रा है। केरल आदि में ऐसा चावल खूब खाया
जाता है। बंगाल, बिहार में भी इसका प्रचलन है। किन्तु पश्चिमी प्रान्तों में यह कम
चलता है।
चावल से
ही मुरमुरे (यानी मूढ़ी या लइया), खील, चूरा (पोहा) आदि बनते हैं। अंग्रेजी में
इसे ही पार्च्ड राइस और बीटेन राइस कहते हैं। बंगाल, असम, बिहार और पूर्वी उत्तर
प्रदेश का इन्स्टैंट फूड है मूढ़ी। बिहार में चूरा-दही खूब खाया जाता है। पोहा
पूरे उत्तर भारत में नाश्ते का आइटम है।
और
हाँ... सिन्धु घाटी की सभ्यता के जो अवशेष मिले हैं, उनमें मिट्टी के बर्तनों में
चावल मिले हैं। इससे पता चलता है कि चावल का हमारी सभ्यता से कितना गहरा नाता है! चावल के बिना
शादी-विवाह की कोई रस्म नहीं हो सकती। पूजा भी नहीं। चावल से ही अक्षत मारी जाती
है। चावल ही अंजुरी में भरा जाता है। कोइंछे मे डाला जाता है। गेहूँ की रोटियाँ
चाहे जितनी खाइए, पूजा-पाठ, शादी-ब्याह में गेहूँ की कोई पूछ नहीं। गेहूँ भारत की
अपनी उपज नहीं है।
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