Wednesday, 27 September 2017

हिन्दी हमारी राष्ट्रीय आवश्यकता-बकौल पं. दीनदयाल उपाध्याय ·

हिन्दी हमारी राष्ट्रीय आवश्यकता-बकौल पं. दीनदयाल उपाध्याय
·        डॉ. रामवृक्ष सिंह
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 में कहा गया कि हिन्दी संघ की राजभाषा होगी, जबकि देवनागरी उसकी लिपि होगी। अनुच्छेद 351 में व्यवस्था की गयी कि राजभाषा हिन्दी का विकास इस रूप में किया जाएगा कि वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बन सके। इसके लिए हिन्दी की शब्दावली को समृद्ध करने का निदेश दिया गया और यह कार्य मुख्यतया संस्कृत से और तत्पश्चात् हिन्दीतर भारतीय भाषाओं और अन्ततः विदेशी स्रोतों से शब्द लेकर किये जाने का विधान किया गया। 
इस प्रकार भारतीय संविधान में हिन्दी के विकास की सुस्पष्ट दिशा निर्धारित है। किन्तु संविधान लागू होने के कुछ समय बाद से ही इस मार्ग से विपथ होने के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। ज्ञातव्य है कि संविधान सभा ने अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी को अविलम्ब लागू करने के बजाय उन सभी कार्यों के लिए 15 वर्ष तक इस्तेमाल करते रहने का समय दिया, जिनके लिए वह स्वतंत्रता के समय इस्तेमाल हो रही थी। इस दौरान विभिन्न विद्वानों और संस्थाओं ने हिन्दी में ढेरों नये पारिभाषिक शब्द गढ़े। उत्तर भारत के कई राज्यों में हिन्दीतर भाषाओं की लिपि भी देवनागरी है, किन्तु उसके एकाधिक रूप प्रचलित थे। जैसे मराठी की लिपि और हिन्दी की लिपि देवनागरी होकर भी किंचित भिन्नता लिए हुए थी। यही स्थिति गुजराती के साथ भी थी। इसी प्रकार विशुद्ध हिन्दी-भाषी प्रान्तों में भी एक ही अंग्रेजी शब्द के अलग-अलग हिन्दी पर्याय बना लिए गये, जैसे इंजीनियर को कहीं यंत्री कहा गया, तो कहीं अभियंता। इससे पारिभाषिक शब्दावली में भी एकरूपता का अभाव हो गया और हिन्दी जाननेवालों के लिए भी हिन्दी कठिन हो गयी। एकाधिक प्रान्तों में प्रचलित होने के कारण हिन्दी की पारिभाषिक शब्दावली को लेकर एक प्रकार की किंकर्त्वविमूढ़ता की स्थिति निर्मित हो गयी।
बकौल पं दीन दयाल उपाध्याय "भारी किंकर्तव्यविमूढ़ता व्याप्त है, और ऐसा प्रतीत होता है कि इस दृष्टि से प्रधानमंत्री सबसे अधिक किंकर्तव्यविममूढ़ व्यक्ति हैं। उनका मत है कि नये प्राविधिक (तकनीकी) शब्द तैयार नहीं किये जाने चाहिए और न गढ़े जाने चाहिए, बल्कि उन्हें क्रमिक रूप से विकसित होना चाहिए। उन्होंने लोकसभा में अपने वक्तव्य में ऐसा ही कहा। 'हिन्दी शब्द तैयार करने और अनुवाद का 'स्लॉट मशीन' जैसा काम बनावटी, हवाई, बेतुका, बेढंगा और हँसी कराने का उपाय है। ऐसा उपाय अपनाकर आदमी अपने को एक लोहे के ढाँचे में जकड़ लेने और कुछ 'श्लोक' बोल देने से ज्यादा कुछ नहीं कर सकेगा।' स्पष्ट ही उनका प्रहार संस्कृत भाषा और संस्कृत विद्वानों पर है। वे संस्कृत नहीं चाहते। यदि हम संस्कृत का परित्याग कर दें तो सभी क्षेत्रीय भाषाओं के लिए नये पारिभाषिक शब्द तैयार करने का सामान्य आधार क्या होगा? आज अंग्रेजी पारिभाषिक शब्द प्रचलित हैं। यदि हम उन्हें ही चलाते रहें तो उनके 'स्थान-ग्रहण' का प्रश्न ही नहीं उठता। उसका अर्थ केवल कुछ सर्वनामों और क्रियाओं को बदल देना होगा, जैसा कि मुगलों ने फारसी से उर्दू का विकास करते समय किया था। फारसीकृत हिन्दी उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर सकेगी, और अंग्रेजीकृत हिन्दी भी नहीं कर सकेगी। अर्द्धशिक्षित नगरनिवासी उस भाषा में बातचीत कर सकते हैं, परन्तु उनका सरकारी या साहित्यिक कार्यों के लिए प्रयोग नहीं हो सकता।"
विभिन्न कारणों से बहुत-सी विदेशी भाषाओं के शब्द हिन्दी और हिन्दीतर भारतीय भाषाओं में समाहित हो चुके हैं। पढ़े-लिखे ही नहीं, बल्कि निरक्षर लोग भी इनमें से बहुत-से शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। इस प्रकार ये शब्द व्यवहार-सिद्ध हो गये हैं और इन्हें भारतीय वाङ्मय से बाहर निकालने का कोई औचित्य नहीं बनता। किन्तु बकौल श्री दीनदयाल उपाध्याय "उनका उपयोग केवल सामान्य बातचीत में या हल्की-फुल्की साहित्यिक रचनाओं में ही हो सकता है। विधि विषयक पुस्तकों के लिए हमें वैज्ञानिक आधार पर निर्मित पारिभाषिक शब्दकोष चाहिए ही। हम 'जज' शब्द का प्रयोग कर सकते हैं, पर 'जुडिशियरी', 'जुडिशियल', 'जजमेंट', 'जजशिप', 'जुडिकेचर', 'जुडिशस', 'ऐड्जज', 'ऐड्जुडिकेशन', 'प्रिजज', 'प्रिजुडिस', 'जस्टिस', 'जस्टिशिएबल', 'जस्टिशियरी', 'जस्टिफाई', 'जस्टिफिकेशन', 'जस्टिफिकेटरी', 'जस्टिफाएबिलिटी', 'जस्टिफिकेटिव', 'ज्यूरी', 'ज्यूरर', 'जुरिस्डिक्शन', 'ज्यूरिडिकल', 'ज्यूरिस्ट', 'ज्यूरिस्प्रुडेंस', आदि शब्दों का, जो एक ही शब्दमूल से निकले परस्पर-सम्बन्धित पारिभाषिक शब्द हैं, हम प्रयोग नहीं कर सकते। यदि आप सरकार कामकाज, विधायी कार्य और प्रशासनिक कार्य के लिए हिन्दी का प्रयोग करना चाहते हैं, तो आपको न्यायपालिका विषयक कार्यों में उपर्युक्त सारे शब्दों का व्यवहार करना पड़ेगा।"
डॉ. रघुवीर ने अपने विशाल शब्द-कोश 'ऐन इंग्लिश-हिन्दी कॉम्प्रीहेन्सिव डिक्शनरी' की भूमिका में प्रमाणित किया कि संस्कृत की थोड़ी-सी धातुओं में अपने पारंपरिक उपसर्गों और प्रत्ययों के योग से लाखों की संख्या में नये शब्द निर्मित किये जा सकते हैं। किन्तु उनके बनाए हुए शब्दों का लोगों ने उपहास उड़ाया और दुर्भाग्य से ऐसे लोगों की अगुआई तत्कालीन प्रधानमंत्री ने स्वयं की। इसी को लक्ष्य करके पं. दीनदयाल उपाध्याय ने लिखा है कि "यह डॉ. रघुवीर का कोई दोष नहीं है कि उन्होंने ऐसे सभी परस्पर सम्बन्धित कार्यों के लिए एक ही संस्कृत मूल धातु से शब्दों की रचना की है। कोई-कोई कुछ शब्दों से असहमत हो सकते हैं, किन्तु जिस किसी व्यक्ति को शब्दकोश के कार्य की कुछ सही कल्पना है, वह इस आधार को गलत नहीं बता सकता। उनका उपहास उड़ाकर प्रधानमंत्री ने उस विषय के प्रति केवल अपनी अज्ञता (अनभिज्ञता) ही प्रकट की है।"
"प्रधानमंत्री ने यह भी कहा है कि शब्द गढ़े नहीं जाने चाहिए, बल्कि सामान्य जनता से क्रमिक रूप से विकसित होने चाहिए। यह सच है कि सामान्य जनता द्वारा सदा नये शब्द प्रचलन में लाये जाते हैं, और किसी भी अन्य सजीव भाषा की तरह हिन्दी में भी उनका प्राचुर्य है। किन्तु उनमें से अधिकांश उन उद्देश्यों की पूर्ति नहीं कर सकते, जिनकी पूर्ति करना हिन्दी को अभीष्ट है। क्या पंडित नेहरू 'गवर्नर' को  'राज्यपाल' के बदले  'लाट साहेब' और  'प्रेसिडेण्ट' को  'राष्ट्रपति' के बदले  'बड़ा लाट' के नाम से संबोधित किया जाना पसंद करेंगे? 'लोकसभा' और  'राज्यसभा' जैसे शब्द, जो अत्यंत सुपरिचित हो गये हैं, क्रमिक रूप से नहीं विकसित हुए, बल्कि पंडित नेहरू द्वारा उपहासित 'स्लॉट मशीन फार्मूले' द्वारा गढ़े गये हैं। प्रारम्भ में ये नाम नये और अपरिचित लगे, किन्तु अब ये भली-भाँति सुपरिचित हो चुके हैं, मानो वे सदा से व्यवहार में चले आ रहे हों। ऐसे बीसियों शब्द हैं जिनका पंडित नेहरू भी व्यवहार करते हैं और जो सामान्य जनता से नहीं बल्कि डॉ. रघुवीर एवं अन्य विद्वानों से ही प्राप्त हुए हैं।"
भाषा की सरलता का जुमला पिछली आधी सदी से भी लम्बे समय से चला आ रहा है। इस बारे में पं. उपाध्याय का मत द्रष्टव्य है- "इस बात से कोई इनकार नहीं करता कि भाषा सरल होनी चाहिए। किन्तु सरलता का मानदण्ड क्या है? उसे सर्वाधिक जनता की समझ में आना चाहिए। यदि यही हमारा उद्देश्य हो तो नयी हिन्दी संस्कृतनिष्ठ होनी चाहिए। यह गांधीजी द्वारा बतायी गयी 'हिन्दुस्तानी' नहीं हो सकती। ...वह हिन्दुस्तानी न कहीं बोली जाती है और न समझी जाती है। पंडित नेहरू की हिन्दी विन्ध्याचल पर्वत के दक्षिण में नहीं समझी जाती और मौलाना आजाद की हिन्दुस्तानी तो उत्तरप्रदेश में भी नहीं समझी जाती थी। जिनकी पढ़ाई उर्दू में हुई है, वे संस्कृत पर आधारित हिन्दी को सदा कठिन बतानेवाले हैं, किन्तु देश के बाकी सब लोगों के लिए वह सरल होगी। गत वर्ष पंडित नेहरू Planetarium के लिए 'कृत्रिम नभोमण्डल' शब्द पर चिढ़ गये थे, किनन्तु वे कोई अन्य सरल शब्द नहीं सुझा सके। उनका फारसी का समकक्ष शब्द और भी कठिन होता।......यदि पूरे देश में या केवल उत्तरप्रदेश में भी मत लिया जाये तो 'कठिन हिन्दी' को समझने वालों की संख्या बहुत अधिक होगी। यदि हिन्दी को एक अखिल भारतीय भाषा के रूप में विकसित होना है, तो उसका फारसीकरण नहीं किया जा सकता। जो लोग अहिन्दीभाषी जनता पर एक ऐसी भाषा लादने के पक्षपाती हैं जो उनके लिए सर्वथा विदेशी है, तथा जो लोग वर्णसंकर 'हिन्दुस्तानी' के पक्षधर हैं, उन लोगों तथाकथित कट्टरपती हिन्दीवालों की अपेक्षा हिन्दी को अधिक हानि पहुंचायी है, क्योंकि अहिन्दीभाषी लोगों को इस भाषा के एक-एक शब्द को सीखना पड़ेगा और वह भी उस स्थिति में जबकि उनकी भाषा में उससे मिलते-जुलते शब्द नहीं हैं। किन्तु प्रांजल संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के बारे में ऐसी बात नहीं है। (14 सितम्बर 1956)"
(पोलिटिकल डायरी, पृ. 98-102)
स्वभाषा और सुभाषा शीर्षक अपने आलेख में पं. दीनदयाल उपाध्याय ने बड़े पुरज़ोर तरीके से प्रतिपादित किया है कि भारत के हिन्दीतर भाषी महानुभावों के हिन्दी-विद्वेष का मूल कारण स्व-भाषा प्रेम नहीं हैं। 'जो लोग अंग्रेजी को बनाये रखना चाहते हैं, वास्तव में वे अपने हिन्दी-विद्वेष से ही प्रेरित हैं। वे हिन्दी के स्थान पर कोई भी अन्य भाषा स्वीकार कर लेंगे। वे हर प्रकार के ऊल-जलूल तर्क देते हैं और अहिन्दी भाषी जनता की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते हैं। अपने अपने क्षेत्र की जनता को यह बताने का प्रयत्न करते हैं कि यदि अंग्रेजी हटा दी गयी तो उनकी अपनी भाषा जीवित नहीं रह सकेगी।'
बकौल पं. दीनदयाल उपाध्याय 'अंग्रेजी के विरुद्ध लड़ाई 'हिन्दी वालों' की लड़ाई नहीं है। वह वस्तुतः भारत की सभी क्षेत्रीय भाषाओं का एक सम्मिलित लक्ष्य है। यदि अंग्रेजों ने अपने साम्राज्य को सुदृढ़ बनाने के लिए 'फूट डालो और राज्य करो' की नीति का अवलम्बन किया, तो अंग्रेजी के समर्थक उस विदेशी भाषा को चिरस्थायी बनाये रखने के लिए उसका अवलम्बन कर रहे हैं। यदि अंग्रेजी चली जाती है तो उसका स्थान अकेले हिन्दी ही नहीं ग्रहण करेगी, बल्कि हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाएँ संयुक्त रूप से ग्रहण करेंगी। यदि अंग्रेजी बनी रहती है, तो भारत की कोई भाषा पल्लवित नहीं हो सकेगी। क्या वह हिन्दी थी, जिसने तमिल या बंगला को या अन्य भाषाओं को उनके क्षेत्रों से अपदस्थ किया? कोई ऐसा नहीं सोचता कि केरल में विधानमंडल और प्रशासन का कार्य मलयालम के बदले हिन्दी में होगा। किन्तु मलयालम तब तक नहीं आ सकती, जब तक अंग्रेजी हट नहीं जाती।'
अखिल भारतीय स्तर पर देश-वासियों के पारस्परिक संवाद और राजकाज के लिए हिन्दी के औचित्य पर पं. दीनदयाल उपाध्याय का निर्भ्रान्त कथन है कि -'अखिल भारतीय स्तर पर हिन्दी अग्रेजी का स्थान लेगी। वह स्थान किसी भी अन्य भारतीय भाषा को दिया जा सकता है, किनन्तु सुस्पष्ट कारणों से हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में उपयुक्त माध्यमम माना गया। वस्तुतः संविधान-स्वीकृत होने के बहुत पहले से ही उसे यह स्थान प्राप्त था। संस्कृत यदि विद्वानों और भद्रपुरुषों की संपर्क-भाषा थी, तो सामान्य लोगों की संपर्क-भाषा हिन्दी थी। मध्यकाल में साधुओं ने इसका खुलकर और बारम्बार प्रयोग किया। उन लोगों द्वारा रचित अनेक हिन्दी कविताएँ हमें मिलती हैं, यद्यपि उनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं थी।'
देश के राष्ट्रीय जीवन, एकीकरण और स्वतंत्रता संग्राम में हिन्दी की भूमिका को पं. उपाध्याय ने बहुत उपयुक्त रूप में रेखांकित करते हुए कहा है-'हमारे सुदीर्घ स्वातंत्र्य-संघर्ष-काल में हिन्दी अंतर-सम्पर्क का स्वाभाविक माध्यम थी। भूषण ने छत्रपति शिवाजी पर हिन्दी में काव्य-रचना की। गुरु गोविन्द सिंह ने अपने अनुयायियों को हिन्दी में उपदेश दिये। 1857 में अंग्रेजों को भगा देने की योजना हिन्दी के माध्यम से बनी। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने हिन्दी के माध्यमम से ही राष्ट्र का तेजस्वितापूर्ण आह्वान किया। गांधीजी ने अंग्रेजों के विरुद्ध शांतिपूर्ण विद्रोह के निमित्त सन्नद्ध करने की दृष्टि से जनता को उत्साहित करने के लिए हिन्दी को ही उचित माध्यमम माना।'
'यदि संविधान में हिन्दी को परम्परागत रूप से सुप्रचलित नाम 'राष्ट्रभाषा' के बदले 'राजभाषा' नाम दिया गया तो उसका उद्देश्य अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के बारे में केवल कुशंकाएँ दूर करना ही था और यह प्रकट करना भी था कि वे सब भी समान रूप से राष्ट्रीय हैं। राष्ट्रीय एक गुणप्रधान कल्पना है, परिमाणप्रधान नहीं। भू-क्षेत्रीय राष्ट्रवाद के आदर्श पर चलने वालों के लिए इसका गूढ़ार्थ कठिन होगा। ऐसे लोग यह भी नहीं समझ सकते कि भाषाविषयक एवं अन्य प्रसंगों में मंद एकरूपता थोपे बिना भी राष्ट्रीय एकता कैसे अक्षुण्ण रखी जा सकती है। फिर भी, सांविधधानिक अभिव्यक्ति ने लोगों को भ्रमित किया है और इस कारण वे यह अनुभव करते हैं कि यदि कोई हिन्दी का विरोध करता है और अंग्रेजी की वकालत करता है तो इससे उसकी राष्ट्रीयता की भावना पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उनकी दृष्टि से सरकारी कार्य जागतिक विषय हैं, वे किसी भी भाषा में किये जा सकते हैं, और इसमें हानि ही क्या है यदि अंग्रेजी का प्रयोग चलता रहे। इसके परिणामस्वरूप भाषा के प्रश्न के प्रति उदासीनता की मनोवृत्ति पैदा हुई है। व्यावहारिक कारणों से जो समझौतामूलक कार्यवाही हुई, उससे भी अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी को लाने का उत्साह ठंडा पड़ा।'
अंग्रेजी में चाहे कितने ही गुण हों वह हमारी भाषाओं की जगह नहीं ले सकती। इस बात को समझने के लिए पं. उपाध्याय के निम्नलिखित वक्तव्य द्रष्टव्य हैं- 'यदि अंग्रेजी हटेगी तो हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना को संतुष्ट करने के लिए। इसलिए अंग्रेजी के गुणों और लोगों की रट लगाने से कोई लाभ नहीं। हम अंग्रेजी शासन को नहीं रख सकते थे, चाहे उससे जो लाभ रहे हों। हमारे स्वातंत्र्य-संग्राम के प्रारम्भिक दिनों में ब्रिटिश-समर्थक तत्वों को हमारा यह सामान्य उत्तर होता कि 'स्वराज्य' (selfrule) की प्यास को 'सुराज्य' (good rule) से नहीं बुझाया जा सकता। आज भी 'स्वभाषा' की आवश्यकता की पूर्ति 'सुभाषा' से नहीं हो सकती।'
फ्रैंक ऐंथनी ने अंग्रेजी को भी भारतीय भाषा निरूपित किया। इसके विरोध में पं. उपाध्याय का तर्क देखने योग्य है- '..गत एक सौ पचास वर्षों से इसके प्रयुक्त होते रहने के कारण यह हमारे राष्ट्रजीवन का अंग बन गयी है। जीवन के हर क्षेत्र के नेता अंग्रेजी के माध्यमम से प्राप्त सिद्धांतों को साकार करने का प्रयास करते आ रहे हैं। हमारा चिंतन अंग्रेजी में चलता है। मूल्यों के बारे में हमारे निष्कर्ष अंग्रेजों से प्राप्त होते हैं।... पर इससे अंग्रेजी भारतीय भाषा नहीं बन जाती।'
'यदि हमारे राष्ट्रीय जीवन का आयोजन और मार्गदर्शन अंग्रेजी में निहित आदर्शों के अनुसार होता है, तो यह हमारी मानसिक दासता का चिह्न है। जितने शीघ्र हम इससे मुक्ति पा लें, उतना ही अच्छा। इन आदर्शों का पालन और उन्नयन कर हम राष्ट्राभिमान नहीं पैदा कर सकते। हम पाश्चात्यों के मार्गों और पद्धतियों का अनुसरण कर केवल उनका मर्कटानुकरण कर सकते हैं, अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं प्रकट कर सकते। जब तक अंग्रेजी चलती रहती है, तब तक हम अपने सांस्कृतिक पुनरुद्धार की जीवनदायिनी मुक्त वायु ममें सांस नहीं ले सकते। आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान सीधे प्राप्त न कर सकने का जोखिम उठाकर भी हमें विदेशी भाषा के चंगुल से अपने को मुक्त कर लेना चाहिए। अंग्रेजी के माध्यम से पश्चिम की नकल करके हम विश्व को जो भी कुछ दे सकते हैं, उससे कई गुना अधिक मूल्यवान योगदान हम अपनी भाषा द्वारा कर सकते हैं।'
फ्रैंक ऐंथनी ने अंग्रेजी को अल्प-संख्यकों की भाषा के तौर पर पेश करते हुए उसे संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने की वकालत की। इस पर पं. उपाध्याय का मंतव्य था कि 'यदि ऐंग्लो-इंडियन समुदाय अंग्रेजी बोलता आ रहा है, और यदि वह जनता के साथ एकरूप होकर रहना चाहता है तो उसे उसको छोड़ देना चाहिए।.. वे अंग्रेजी बोलते हैं तो उसका कारण उनकी शिक्षा है, जिसे वे साधारणतया कान्वेण्ट में प्राप्त करते हैं। यों तो वहाँ पढ़नेवाले गैर-ऐंग्लो-इंडियन बच्चे भी अंग्रेजी बोलना प्रारम्भ कर देते हैं। यह तो केवल इन स्कूलों का राष्ट्रीयतानाशक प्रभाव है। उनसे यह आदत छोड़करक समाज की गति के साथ चलने के लिए कहने के बदले हम सारी जनता पर एक ऐसी भाषा नहीं लाद सकते, जो उसकी अपनी नहीं है।...ऐंग्लो-इंडियन समुदाय विशेष परिस्थितियों में अस्तित्व में आया। ब्रिटिश काल में उसे सारी सुविधाएं प्राप्त हुईं। उनमें से कुछ सुविधाओं को भारत छोड़कर जाते ब्रिटिश आकाओं के कहने से संविधान द्वारा दस वर्ष के लिए सुरक्षित रख दिया गया। फ्रैंक ऐंथनी को इन दस वर्षों की समाप्ति के पूर्व सर्वसाधारण जनता की भाँति रहने के लिए अपने समाज को तैयार करना चाहिए था। एक राष्ट्रविरोधी अभियान चलाना और इस प्रकार पूरे समुदाय की प्रतिष्ठा घटाना उन्हें शोभा नहीं देता।'
अंग्रेजी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने के क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं, इस पर पं. उपाध्याय का मत है कि ' यदि आठवीं अनुसूची में संशोधन करके अंग्रेजी को भारतीय भाषा के रूप में मान्य किया जा सकता है तो किसी दिन अंग्रेजी को ही भारत और राज्यों की एकमात्र सरकारी भाषा बनाये रखने का तर्क भी इसी आधार पर प्रस्तुत किया जाने लगेगा। ...यद्यपि कुछ प्रचलित अंग्रेजी शब्दों को अपनाये रखा जा सकता है, तथापि अंग्रेजी हिन्दी के विकास के आधार के रूप में अन्य भाषाओं की भाँति सहायक नहीं बन सकती। हिन्दी की स्वाभाविक प्रतिभा में बाधा डाले बिना अंग्रेजी शब्दों को हिन्दी के साथ मिश्रित नहीं किया जा सकता। हिन्दी में 'साइकिल' शब्द का प्रयोग चलते रहने देना और बात है, किन्तु हम 'साइक्लिस्ट', 'एन्साइक्लिक',  'साइक्लोस्टाइल' आदि का प्रयोग नहीं कर सकते। सच्ची बात यह है कि जब प्राविधिक और वैधानिक विषयों के लिए उपयुक्त शब्द ढूँढ़ने पड़ते हैं तो हमें संस्कृत  आश्रय लेना ही पड़ता है। हम अंग्रेजी पारिभाषिक शब्दों को नहीं अपना सकते, क्योंकि वे अकेले नहीं, अपने पूरे परिवार के साथ आते हैं।'
(पोलिटिकल डायरी पृ. 98 से 107)
कोई प्रधानमंत्री किसी देश की प्रतिनिधि भाषा को कहाँ तक उठा या गिरा सकता है, इसका मुज़ाहिरा करना हो तो नेहरू-काल में आरंभ हुई हिन्दी की अवनति और आज फिर से हिन्दी के प्रचार-प्रसार की स्थिति को तोल कर देखें। नेहरू को तो संस्कृत-निष्ठ हिन्दी से गुरेज़ था। उन्होंने संस्कृत धातुओं से निर्मित अंग्रेजी के हिन्दी प्रतिशब्दों को 'स्लॉट मशीन' से निर्मित शब्द कहा और हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री ने खुद कितने ही नये संस्कृत शब्दों को इस्तेमाल करके देश में हिन्दी के प्रयोग व प्रचार-प्रसार की एक नयी दिशा निर्धारित की है। उदाहरण के लिए उन्होंने विकलांगों या अपाहिजों के लिए एक अधिक सम्मानजनक शब्द 'दिव्यांग' का प्रयोग आरंभ किया। आज देश में दिव्यांग शब्द पूरी तरह प्रचलन में आ गया है। हालांकि आर्थी संरचना के धरातल पर यह शब्द दिव्य अंग, यानी बहुत सुन्दर, अतुलनीय अंग वाला होने का द्योतन कराता है, किन्तु जिस व्यक्ति में शारीरिक विकलांगता हो, वह दैनंदिन जीवन में निजी और सामाजिक स्तर पर जिस संत्रास से गुजरता है, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। फिर भी प्रधानमत्री ने इस शब्द को बिलकुल नयी अर्थ-भंगिमा दी और यह पूरी तरह प्रचलन में आ गया है।
पं. दीनदयाल उपाध्याय को इस बात से बड़ा रंज था कि देश की राजनीति के शीर्ष पर बैठा पदाधिकारी देश की जन-जन की भाषा को आगे न बढ़ाकर अंग्रेजी की हिमायत करता है। नेहरू और उनके जैसे अंगरेजीदाँ राजनेताओं ने हिन्दी के साथ ऐसा दुर्व्यवहार न किया होता तो वह आज कहीं बेहतर स्थिति में होती। आधे-अधूरे मन से हिन्दी में काम करने और उसके प्रचार-प्रसार, शिक्षण आदि की जिस व्यवस्था की नींव नेहरू काल में पड़ गयी, उसपर हिन्दी की इमारत कभी सीधी खड़ी हो ही नहीं सकती थी।
अतः अब ज़रूरत इस बात की है कि उस गलत खड़ी इमारत को गिराकर नये सिरे से बनाया जाए। केन्द्र सरकार के कामकाज में हिन्दी को अनिवार्य किया जाए। हिन्दी ही नहीं, संस्कृत के शिक्षण की भी माकूल व्यवस्था की जाए और संस्कृत में नये सिरे से प्राण-प्रतिष्ठा की जाए। संस्कृत नहीं बचेगी तो हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के मध्य शब्दावली का जो सेतु विद्यमान है, वह भी ध्वस्त हो जाएगा। इस सच्चाई को हम जितना जल्दी समझ लें, हमारी अपनी भाषाओं के लिए उतना ही बेहतर रहेगा।
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Tuesday, 26 September 2017

राजभाषा कार्यान्वयन के कर्णधार

राजभाषा कार्यान्वयन के कर्णधार
डॉ. आर.वी. सिंह
      उनका नाम बताने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होनेवाला- इसलिए फिलहाल नाम रहने दें। पदनाम बता सकता हूँ। वैसे भी पदनाम को स्थिर रखते हुए, नाम बदलते रहें तो प्रायःएक-सी ही स्थिति निर्मित होती है और एक जैसा ही बिम्ब मस्तिष्क में उभरता है।
     मैं उन दिनों भोपाल में कार्यरत था। वे वहाँ उपनिदेशक (राजभाषा कार्यान्वयन) थे। नये-नये आये तो सुना कि बड़े विद्वान आदमी हैं, कवि हैं, बहुत अनुभवी हैं, सज्जन हैं। स्वाभाविक जिज्ञासावश (जो हिन्दी अधिकारियों में कुछ ज्यादा ही होती है) मैंने फोन पर उनसे संपर्क किया। फिर एक दिन साक्षात् मिलने ही पहुँच गया। वे बड़े तपाक से मिले। विजिटिंग कार्डों का आदान-प्रदान हुआ। उनके कार्ड पर एक नज़र डालते ही मन आश्चर्य-मिश्रित श्रद्धा से भर आया। तीन-तीन विषयों में एम.., दो में पीएच.डी., डी.लिट.। कई विदेशी भाषाओं में डिप्लोमा और न जाने क्या-क्या! उनके बारे में और अधिक जानने की इच्छा हुई तो पूछ ही डाला। पता चला कि दिल्ली के एक बड़े नामचीन विश्वविद्यालय में रीडर भी रहे हैं। राष्ट्रीय स्तर के कवियों में गणना होती है। ढेरों सम्मेलनों में जाते हैं और प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में बराबर छपते हैं। ऐसे महान व्यक्ति से मिलकर हम धन्य हो गये। चलते-चलाते अनुरोध कर आए- ‘‘महोदय, कभी हमारे कार्यालय में पधारें।'' ‘‘हाँ-हाँ, क्यों नहीं! अब तो आना-जाना लगा ही रहेगा।'' कहते हुए उन्होंने पान से गलगलाते कंठ से अपनी मधुर सुर-सुधा का संधान किया और हमें दरवाज़े तक छोड़ने के लिए उठ आये। ऐसी सौम्यता! ऐसा सौजन्य! वाह! ये तो मनुष्य के रूप में कोई देवदूत हैं। कुछ इसी प्रकार के मनोभावों से भरे हुए हम उनके कार्यालय से लौटे।
     हफ्ता भर भी नहीं बीता था कि उनका शासकीय पत्र आ गया। अमुक-अमुक तारीख को आपके कार्यालय में राजभाषा कार्यान्वयन का निरीक्षण है। हमारे कार्यालय के प्रशासनिक प्रमुख ने तुरन्त एक विशेष बैठक बुलवायी और निरीक्षण के लिए अपेक्षित सारी तैयारी की विस्तृत रूपरेखा तैयार करा डाली। एक-एक पहलू पर बारीकी से विचार हुआ। हमने सारे दस्तावेज, फाइलें और अन्य कागजात व्यवस्थित कर लिए। कार्यालय के साइन बोर्ड, सूचना पट्ट, रबर मुहरें, फाइलों व रजिस्टरों के शीर्ष, आवक-जावक रजिस्टर, लेजर आदि सभी रिकार्ड ऐसे व्यवस्थित कर लिए कि निरीक्षण कार्य निर्बाध पूरा हो सके। प्रतिदिन एक हिन्दी शब्द सीखिए योजना का और भी मुस्तैदी से पालन होने लगा। हिन्दी समर्थन में जो पोस्टर इधर-उधर चस्पा थे, उनको बदलकर और भी सुरुचिपूर्वक कुछ नये पोस्टर लगा दिए गए। कहीं कोई झोल न रह जाए, इस बात का पूरा ध्यान रखते हुए निरीक्षण योग्य हर पहलू पर गौर करने के बाद पूरी व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त कर दी गयी। निरीक्षण के बहाने ही सही, कार्यालय का वातावरण पूरी तरह हिन्दीमय हो आया।
     अंततः निरीक्षण की तारीख आ गयी। सीट पर बैठते ही उनके कार्यालय से फोन आ गया। उनका स्टेनो बोल रहा था- ‘‘साहब आज बारह बजे आएँगे। आप उनके लिए गाड़ी भेज दीजिएगा।'' हमारी तैयारी पूरी थी। फिर भी अभी निरीक्षण में दो घंटे का समय है, यह जानकर जान में जान आयी। एक बार फिर पूरी स्थिति का जायजा ले लिया कि यदि भूल से कहीं कोई कमी रह गयी हो तो उसे दुरुस्त कर लें। सारी व्यवस्था एकदम ठीक थी, यहाँ तक कि प्रशासनिक अधिकारी ने निरीक्षणकर्ता को देने के लिए एक उपहार भी पैक कराके, कार्यालय-प्रमुख के केबिन में रखवा दिया था।
     यद्यपि उपनिदेशक का कार्यालय हमारे यहाँ से मुश्किल से 400 मीटर की दूरी पर था, फिर भी एहतियात के तौर पर हमने पौने बारह बजे ही गाड़ी भिजवा दी। प्रमुख ने बहुत कहा कि किराए की टैक्सी मँगवा लीजिए, किन्तु हम फिजूलखर्ची के खिलाफ हैं। वैसे भी कुल जमा आठ सौ मीटर की यात्रा के लिए किराए पर टैक्सी मँगाने का क्या तुक! सो हमने उन्हें शान्त करा दिया-‘‘नहीं सर, उनका दफ्तर तो यहीँ पास में ही है। बस एक बार जाना-आना ही तो है। अपनी ऑफिस कार से ही मैनेज हो जाएगा।'' सौम्य-सज्जन प्रमुख चुप लगा गये। दरअसल उनको दो बजे की फ्लाइट पकड़कर, एक विशेष बैठक के लिए दिल्ली जाना था।
     गाड़ी भेजे करीब चालीस मिनट हो गये तो हमें चिन्ता सताने लगी। जल्दी-जल्दी हमने नीचे से स्कूटर उठाई और उनके कार्यालय जा पहुँचे। वहाँ हमारी संस्था की कार नहीं दिखी तो और भी चिन्ता हुई कि कम-अक्ल ड्राइवर कहीं और तो नहीं पहुँच गया। आनन-फानन में ऊपर पहुँचकर जो सामने दिखा, उसी से पूछताछ करने लगे। स्टेनो ने बड़ी भेदभरी मुस्कान बिखेरते हुए स्वागत किया- ‘‘आइए-आइए, सर। साहब बस निकलने ही वाले हैं ।'' ‘‘हमने गाड़ी भेजी थी। लगता है, अभी तक पहुँची नहीं।'' हमारी बौखलाहट देखकर उसने खीसें निपोर दीं- ‘‘नहीं-नहीं, गाड़ी तो आपकी पौने बारह बजे ही आ गयी थी। साहब ने किसी और को लाने के लिए भेजी है। बस उन्हीं का इन्तजार है।'' अब जाकर हमें माजरा कुछ-कुछ समझ आने लगा था। जो कुछ घटित होने जा रहा था, उसकी कल्पना करते-करते हमारा रक्तचाप बढ़ने लगा। उपनिदेशक को सौजन्य देने के फेर में हमने अपने भाग्य-नियन्ता बॉस का ही सौजन्य बिगाड़ डाला- हाय! हमने यह क्या नादानी की! बॉस का कहा मानकर, किराए की कार मँगा ली होती तो ऐसी कठिन परिस्थिति न पैदा होती। यहाँ एक बजनेवाला है और कार का पता नहीं। आज तो बॉस की फ्लाइट गयी।
     शायद उपनिदेशक महोदय एक कान हमेशा मुख्य द्वार पर लगाए रखते थे। हमारी बातचीत की भनक  उनको भी लग चुकी थी। उन्होंने बहुत प्रेम से हमें भीतर बुलाया और बैठने का न्यौता दिया। अपने मनोभावों को जबरन दबाकर हम बैठ गए। हमारे आँख-कान बाहर लगे थे। उपनिदेशक से हमारी क्या बातचीत हुई, कुछ भी याद नहीं। आखिर पाँच मिनट बाद बाहर कार रुकी, दरवाजा खुलने-बंद होने की आवाजें आयीं। कुछ क्षणों बाद एक महिला ने उपनिदेशक महोदय के कक्ष में कदम रखे। ‘‘आइए-आइए। हम लोग आपही का इन्तजार कर रहे थे।'' उप निदेशक ने उन महिला का परिचय किसी कवयित्री के रूप में कराया जो सरकारी टेलीफोन विभाग में कार्यरत थी। उस सुदर्शना युवती पर ध्यान देने की हममें ताब नहीं थी, इसलिए सौजन्यवश जो भी करणीय था, उससे अधिक उत्सुकता हमने नहीं दिखायी। गाड़ी में वे दोनों बैठे और आगे-आगे हम अपनी स्कूटर पर उनकी अगवानी करते अपने दफ्तर आए।
     एक के बजाय दो मेहमानों के पहुँच आने पर प्रशासनिक अधिकारी थोड़ा विचलित हो आये- क्योंकि उन्होंने तो एक ही उपहार की व्यवस्था की थी। लेकिन निरीक्षणकर्ता बड़े प्रफुल्लित दिख रहे थे। पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार प्रमुख ने पुष्प-गुच्छ से दोनों मेहमानों का स्वागत किया और अगवानी करके अपने केबिन में लिवा ले गये। साधारण जलपान के बाद हम उम्मीद कर रहे थे कि उप निदेशक हमारे कामकाज का जायजा लेंगे, कागजात और फाइलें, रजिस्टर आदि देखेंगे। समीक्षा करेंगे। कुछ जरूरी सुझाव देंगे। उत्साही होंगे तो स्टाफ को संबोधित करेंगे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। उनकी ओर से कोई पहल न होती देख हमने ही हिम्मत जुटाई- ‘‘आइए सर, आपको अपना हिन्दी का कामकाज दिखा दूँ।'' उन्होंने बड़े निर्विकार भाव से हाथ हिलाते हुए मना किया-‘‘अरे, आइए बैठिए।..आपका क्या निरीक्षण! आप जैसा विद्वान राजभाषा अधिकारी जहाँ हो, वहाँ भला कोई कमी रह सकती है!! बस आप तो वह प्रारूप भरकर दे दीजिए जो हमारे पत्र के साथ आपको मिला था और खाली प्रारूप की बीस फोटो प्रतियाँ दे दीजिए।'' हमने पहले से भरी हुई रिपोर्ट और खाली प्रारूप की बीस प्रतियाँ फोटो कॉपी कराकर उनको सौंप दीं।
     ‘‘आपके यहाँ से जबलपुर फोन हो सकता है? '' उन्होंने प्रमुख की टेबल पर रखे फोन पर हाथ फिराते हुए पूछा। ‘‘हाँ-हाँ, क्यों नहीं। शौक से कीजिए।'' प्रमुख ने फोन को अनलॉक करते हुए कहा और फोन उनकी ओर सरका दिया। साथ ही, बैठक में भाग लेने की विवशता बताते हुए वे उठ खड़े हुए और हम सबको आवश्यक निर्देश देकर एयरपोर्ट के लिए निकल पड़े। ‘‘आप निश्चिन्त होकर जाएँ, हमारी चिन्ता न करें। '' उप निदेशक ने प्रमुख को आश्वस्त किया और टेलीफोन के की-पैड पर उंगलियाँ नचाने लगे।
     आधा घंटा इधर-उधर की बातें करने और उपनिदेशक की फोन-चर्या में निकल गया। जब दो बजने को आए तो हमने उनसे आग्रह किया- ‘‘सर, चलिए। हमारे लाउंज में आपके भोजन की व्यवस्था है। कुछ खा-पी लिया जाए।'' उन्होंने तत्परता से फोन बन्द किया और उठते हुए बोले- ‘‘हाँ-हाँ, चलिए।''  दोनों व्यक्तियों से साहित्य-चर्चा और आजकल के हालात पर तप्सरा करने की प्रक्रिया में लगभग ढाई-पौने तीन बज गये। पान-तंबाकू के प्रति उनका विशेष रुझान देखकर हमने समुचित व्यवस्था कर रखी थी। लिहाजा मुँह में पान दबाए जब वे लौटकर कार्यालय-प्रमुख के कक्ष में जमे तो फिर हमारे मन में उम्मीद जगी कि अब शायद दिमाग के कपाट खुलें और उप निदेशक महोदय निरीक्षण की वास्तविक कार्रवाई आरंभ करें।
     लेकिन हमारी आशा के ठीक विपरीत वे उठे और संगिनी को भी चलने का इशारा करते हुए बोले- ‘‘तो अब इजाजत दीजिए। आपकी रिपोर्ट हम जल्द ही भेज देंगे।''
     हम सब भी उनके साथ ही उठ खड़े हुए। प्रशासन-प्रमुख ने दोनों व्यक्तियों को धन्यवाद देते हुए उनके उपहार पकड़ाए और जबर्दस्ती की मुस्कान ओढ़ ली। दोनों जनों को जैसे हम लाए थे, वैसे ही गाड़ी तक छोड़ने गए। गाड़ी एयरपोर्ट से वापस आकर पोर्टिको में खड़ी थी। आगे बढ़कर हमने पहले महिला अतिथि और फिर उपनिदेशक महोदय के लिए गाड़ी का दरवाजा खोला तो बैठते हुए वे बोले- ‘‘लाइए, कुछ देना हो तो दे दीजिए।''
     हम इस स्थिति के लिए तैयार नहीं थे। हमने हाथ जोड़ लिए- ‘‘सर, हमारा जो कुछ है, सब आपका है। इस समय क्षमा चाहते हैं। अगली बार जरूर ध्यान रखेंगे।''
     ‘‘अरे नहीं, नहीं, हम तो यूं ही कह रहे थे।...अच्छा अब चलते हैं। नमस्कार।..चलो ड्राइवर।''  उन्होंने हमारे ड्राइवर को आदेशात्मक लहजे में कहा और शीशे चढ़ा लिए।
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     चलते-चलाते उनके हाथ में कुछ न पकड़ा पाने का मलाल हमें हमेशा रहा। रहीम का दोहा बार-बार मन में गूँजता- तिनते पहले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं। जब भी मुलाकात होती, पूछ ही लेते- ‘‘सर, हमारे लायक कोई सेवा हो तो बताइए।''
     बहती गंगा में हाथ धोना उनको खूब आता था। तिसपर न जाने कैसे उन्हें पता चल गया था कि हम हिन्दी में टाइप खूब अच्छा कर लेते हैं। ऐसा विद्वान्, युनिवर्सिटी टॉपर, परिश्रमपूर्वक खुद थीसिस लिखकर पीएच.डी. की बिलकुल असली डिग्री हासिल करनेवाला हिन्दी टाइपिस्ट उन्हें कहाँ मिलने वाला था! दो वर्ष की अवधि में जब भी उन्हें अपने लेख टाइप करवाने की जरूरत पड़ी, उन्होंने निस्संकोच हमें याद किया। पूरे वर्ष की साहित्यिक गतिविधियों, जयंतियों, पुरस्कारों, समारोहों, शोक-सभाओं के बारे में वे जानकारी जुटाते और जनवरी के शुरू में किसी प्रतिष्ठित अखबार के पूरे एक पन्ने में उनका यह सूचनापरक लेख छपता। हमें गर्व होता है यह बताते हुए कि कम से कम दो वर्ष इस लेख का टंकण हमने किया।
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     कानपुर और लखनऊ के बीच में एक जिला पड़ता है, उन्नाव। कहते हैं कि ये उपनिदेशक वहीं के रहनेवाले थे। निरीक्षण हो या गंभीर से गंभीर कार्यक्रम। वे जीन्स-टी शर्ट में पहुँच जाते। लगभग पचपन वर्ष की बेडौल काया पर भी यही पोशाक पहनने का उनका शौक उचित था या अनुचित, ये तो वे जानें या उनका पैतृक विभाग। उनके पास बिना गीयर वाली एक स्कूटर थी। उसी पर भोपाल से निकलते और रास्ते में जितने भी सरकारी दफ्तर मिलते, सबका निरीक्षण (!) करते हुए दूसरे दिन (जो प्रायः रात को 11-12 बजे समाप्त होता) उन्नाव पहुँच जाते। वापसी में दूसरा रूट पकड़ते और उन्नाव से भोपाल तक के बाकी कार्यालय भी निपटा डालते। अपने कार्यकाल में उन्होंने दो बार हमारे कार्यालय का निरीक्षण किया। हर बार उनके साथ कोई न कोई महिला होती। एक बार हिन्दी दिवस पर मुख्य अतिथि के रूप में पधारे। राजभाषा के अलावा सभी बातें की। कविताएँ सुनाईं और महिला से लोक-गीत गवाया। दोनों ने उपहार लिए और ससम्मान प्रस्थान किया।
     इसमें शक नहीं कि उप निदेशक महोदय सचमुच विद्वान थे। उनकी पहुँच राजभवन तक थी। काव्य-मर्मज्ञ एवं साहित्य-रसज्ञ महामहिम को भी कविताएँ सुना आते, और अगली मुलाकात में खूब प्रेम से सबको वहाँ के किस्से सुनाते।
     सरकारी रवायत के अनुसार एक बार उन्होंने क्षेत्रीय राजभाषा सम्मेलन आयोजित कर डाला। पश्चिम क्षेत्र में उन दिनों कोई उप निदेशक नहीं थे, इसलिए वहाँ की कमान भी इन्हीं के हाथ में थी। लिहाजा संयुक्त राजभाषा सम्मेलन भोपाल में ही आयोजित हुआ। केद्र सरकार के आला अधिकारियों और मुम्बई के पदाधिकारियों के अलावा भोपाल के भी नामी-गिरामी अधिकारी जुटे थे। सम्मेलन के सभी नामपट कंप्यूटर पर तैयार करने और प्रिंट आउट निकालने का दायित्व हमारे जिम्मे आया। तब तक उप निदेशक को एक अनुसंधान अधिकारी की सेवाएं भी मुहैया करा दी गयी थीं। अनुसंधान अधिकारी ने हमें फोन किया और पूछा-‘‘आप दो दिन के इस सम्मेलन में क्या सहयोग करेंगे? ''  ‘‘जी मैंने नामपट्टिकाएं बना दी हैं, और जो आप बोलेंगे वह मैं करने को तैयार हूँ।'' ‘‘ठीक है, मैं अभी अपने स्टेनो को कुछ कागज देकर भेज रहा हूँ। आप उनको फैक्स करा दीजिए। कुछ रिपोर्टों की फोटोकापियाँ करा दीजिए। और एक दिन का लंच प्रायोजित करा दीजिए।'' उन्होंने किंचित् आदेशात्मक लहजे में कहा।
     पहली दो मदों में अधिक उलझन नहीं थी। एक में टेलीफोन का बिल बढ़ने वाला था, दूसरे में फोटोकॉपियर का। दोनों मदों को कार्यालय स्तर पर संभाला जा सकता था, किन्तु तीन-चार सौ आदमियों का लंच प्रायोजित करने का मतलब था कम से कम पचास हजार रुपये का प्रावधान, जो प्रधान कार्यालय की अनुमति के बिना असंभव था। परिस्थिति की गंभीरता का आकलन करते हुए हमने कहा- ‘‘पहली दो चीजें तो स्थानीय स्तर पर हो जाएँगी, किन्तु लंच के प्रायोजन का खर्च लंबा होगा, उसके लिए हमें प्रधान कार्यालय से अनुमति लेनी होगी। यदि आपकी ओर से कोई लिखित सूचना मिल जाती तो उसके आधार पर हम अनुमति ले लेते।''
     वे कुछ खिन्न हो आए -‘‘लिखित सूचना देना तो संभव नहीं है।''
     ‘‘फिर तो सर, कठिन हो जाएगा।'' हमने भी अपनी लाचारी दिखायी।
     ‘‘देख लीजिए, अगर आपको शील्ड चाहिए, तो इतना तो करना ही होगा।'' कहकर उन्होंने फोन काट दिया।
     शाम को उनका आदमी आकर लगभग तीस-चालीस जगहों पर अपनी चिट्ठियाँ फैक्स कर गया और लगभग हजार पेज फोटोकॉपी करा ले गया।
     सम्मेलन बहुत सफल रहा। मुम्बई के अनुसंधान अधिकारी हमारे बचपन के मित्र निकले। बातों ही बातों में उन्होंने उप निदेशक का गुणगान शुरू कर दिया। पता चला कि भोपाल के एक स्थानीय मुद्रक के आने पर उपनिदेशक महोदय ने केबिन में बैठे इन अनुसंधान अधिकारी से आग्रह किया था-‘‘ आप जरा बाहर बैठेंगे, मुझे प्रिंटर से कुछ बातें करनी हैं।''
     पता चला कि नाम पट्टिकाएँ, निमंत्रण पत्र, फोटोकॉपी, बाइंडिंग, फैक्स, फोन, चाय-नाश्ता, अल्पाहार, भोजन, आवास सब कुछ स्थानीय सरकारी कार्यालयों व उपक्रमों से प्रायोजित कराए जाते हैं और उनके बिल सरकारी अभिलेखों में दिखाकर लाखों रुपये की बंदरबाँट हर सम्मेलन में हो जाती है। सरकारी कार्यालय और उपक्रम भी इस तरह का आर्थिक बोझ सहर्ष सह लेते हैं, क्योंकि अगले सम्मेलन में उनके प्रशासनिक प्रमुख को किसी बहुत पहुँचे हुए मंत्री, देश के अग्रणी बैंक के सर्वोच्च अधिकारी या बड़े प्रशासनिक अधिकारी के हाथों राजभाषा कार्यान्वयन शील्ड ग्रहण करने का सुअवसर मिल जाता है। अखबारों में फोटो छपते हैं। विभाग में नाम होता है। बड़े लोगों से मिलने, जान-पहचान बढ़ाने और चमकने का मौका मिलता है। कई बार दूसरे शहर जाकर पुरस्कार ग्रहण करना होता है तो टीए-डीए भी बन जाता है। सुना कि उस वर्ष जिस बैंक को प्रथम पुरस्कार मिला उसने उप निदेशक या अनुसंधान अधिकारी में से किसी को रंगीन टेलीविजन भेंट किया था। स्थानीय बैंक नराकास का काम सर्वोत्तम रहने पर भी उसे कभी शील्ड मयस्सर नहीं हुई, क्योंकि उसने न लंच प्रायोजित किया, न महँगे उपहार किसी को दिए।
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     पता नहीं क्या हुआ कि बिना किसी को बताए और बिना किसी विदाई समारोह की शोभा बढ़ाए उप निदेशक महोदय क्षेत्रीय कार्यान्वयन कार्यालय के साथ-साथ भोपाल को भी श्रीहीन कर गये। उनके बाद अनुसंधान अधिकारी ही सर्वेसर्वा हो गये। अब वे ही निरीक्षण करते और विभिन्न कार्यक्रमों की शोभा बढ़ाते। लंबे, गोरे-चिट्टे और अपेक्षाकृत युवा अनुसंधान अधिकारी सज-धज कर कार्यक्रमों में जाते। उप निदेशक की तरह वे जीन्स टी-शर्ट नहीं, बल्कि प्रायः सफारी सूट अथवा मौसम के हिसाब से पैंट कोट पहनते और टाई लगाते। इससे पहले वे हिन्दी प्राध्यापक रह चुके थे। लिहाजा सुनाने के लिए उनके पास संस्मरण भी उसी विषय से संबंधित थे। अंग्रेजी के ओ में आई सटाकर लिखो फिर सी को उसके साथ उल्टा लिख दो तो देवनागरी का क बन जाता है। इसी तरह उन्होंने भुवनेश्वर में लोगों को हिन्दी लिखना सिखाया था। हर जगह वे यही संस्मरण लोगों को सुनाते और लोग तालियाँ बजाते- वाह, साहब की क्या ही मौलिक उद्भावना है!! एक बार हमने इनको एक हिन्दी कार्यशाला में आमंत्रित कर लिया, विषय था- भारत सरकार की राजभाषा नीति। हम बड़ी उम्मीद लगाए बैठे थे कि अनुसंधान अधिकारी कोई बड़ी अनुसंधानपरक बात बताकर हमारा ज्ञानवर्धन करेंगे। उन्होंने सामान्य राम-रमौवल और परिचय के बाद प्रतिभागियों को चमत्कृत कर दिया। बोले- ‘‘राजभाषा नीति के बारे में क्या बताना, वो तो आप लोग जानते ही हैं। मैं आपको बताता हूँ कि इंगलिस के माध्यम से हिन्दी कैस्से सिक्खी जा सकती है।'' इसके बाद वही हुआ, जिसका डर था और जिसका चर्चा हम ऊपर कर आए।
     सरकारी कर्मचारियों में और कुछ चाहे हो या न हो। वे नौकरी लगने के बाद से साठ वर्ष की उम्र पूरी होने तक, बिना कोई काम किए, बड़े धैर्य-पूर्वक रिटायर होने की प्रतीक्षा करते रहते हैं। यह धैर्य ही सरकारी कर्मचारियों की सबसे बड़ी पूँजी और क्वालिटी होता है। हमारे सहयोगियों ने इसी पूँजी के बल पर उनका सत्र झेला। अंत में हमने अपने कार्यालय प्रमुख से उनको मानदेय दिलवाया और नगर के एक नामी होटल में खाना खिलाने के लिए बाहर निकले। कार में बैठकर उन्होंने कहा- ‘‘खाना तो मैं हर रोज घर जाकर, वाइफ के साथ ही खात्ता हूँ। आप ऐसा कीजिए, जो पैसा आप वहाँ खर्च करनेवाले थे, वो मुझे दे दीजिए, और समझ लीजिए कि आपने मुझे होटल में खाना खिला दिया।''
     हमें इसमें क्या आपत्ति हो सकती थी। हमने मान्य अतिथि की इच्छा का पालन किया और ड्राइवर को उनके घर तक पहुँचाने का आदेश देकर लौट आया।
     बाद में सुना उपनिदेशक की नौकरी चली गयी, अनुसंधान अधिकारी की जिंदगी। भगवान से प्रार्थना है कि दोनों की आत्मा को यथा-स्थान शांति दे और उनके बारे में सब कुछ सच-सच लिख देने का घोर अपराध करने के लिए हमें कोई सजा न दे, क्योंकि ईमानदार हिन्दी अधिकारी बनने की सजा हम रोज पाते हैं। तिसपर दिक्कत ये कि सच बोलने की अपनी आदत से मजबूर हैं। करें तो क्या! राजभाषा कार्यान्वयन के कर्णधारों में से बहुतों की यही सच्चाई है। इन बहुतों में वे भी शामिल हैं जिनकी कल्पना सभी समझदार और विज्ञ पाठक सहज ही कर सकते हैं।

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