हिन्दी का उपहास
डॉ. रामवृक्ष सिंह
बिना मतलब किसी दूसरे का मज़ाक उड़ाना तो कोई हम
हिन्दुस्तानियों से सीखे। जिन्हें हम जानते भी नहीं, जिनके बारे में हमारी जानकारी
केवल एक कयास पर आधारित है, उनका मज़ाक बनाने में भी हम पीछे नहीं रहते। मसलन जब
हम छोटे थे और दिल्ली में रहते थे तो वहाँ के लोग अकसर पुरबियों यानी लखनऊ और उससे
पूरब के मूल निवासियों का मज़ाक उड़ाया करते थे। मज़ाक का विषय होता था इन लोगों
की गरीबी, बीवी-बच्चों को गाँव में खेती-बाड़ी और बूढ़े माँ-बाप की सेवा के लिए
छोड़कर खुद अकेले शहर में रहना। एक ही कमरे में आठ-आठ दस-दस लोगों का गुजारा करना,
आदि। इसी प्रकार दिल्ली के लोग उड़िया, तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम-भाषी लोगों
का मज़ाक उड़ाते थे। वे इन दक्षिण भारतीय लोगों को एक ही संज्ञा देते- मदरासी। जो
भाषा पल्ले न पड़े, वह मदरासी। लोग बोलते कि एक हंड़िया में कुछ कंकड़ भरकर हिलाइए
तो जो ध्वनि निकलेगी वह मदरासी भाषा है।
ऐसा नहीं कि बिना मतलब दूसरों का मज़ाक उड़ाने
वाले इन लोगों ने हिन्दी या संस्कृत को बख्श दिया हो। बचपन में हमें स्कूल में
संस्कृत पढ़ाई जाती थी। इतनी प्यारी भाषा, उसका इतना समृद्ध साहित्य! किन्तु न कभी
शिक्षकों ने संस्कृत के महत्त्व से अवगत कराया, न समाज और उसके लोगों ने संस्कृतत
की इज्जत करना सिखाया। संस्कृत का परिचय हमने एक ऐसी भाषा के रूप
में पाया, जिसमें हर चीज़ रटी जाती है। रूप याद करो, लकार याद करो, श्लोक याद करो।
लिहाज़ा संस्कृत का संबंध रटंत विद्या से जोड़ दिया गया। और आदमी रटे भी तो कितना! रटन्त विद्या से
आक्रान्त होकर संस्कृत के बारे में बच्चों ने एक हास्य-कविता बना ली- बालः बालौ
बालानी, संस्कृत कभी न आनी, आनी तो भूल जानी। और बच्चों की इस धारणा को
जानते-बूझते भी कभी किसी भले आदमी ने यह नहीं बताया कि संस्कृत के बारे में ऐसा
सोचना गलत है।
देश के स्वतंत्र होने पर हिन्दी राजभाषा बनी।
उसमें तरह-तरह का काम करने की ज़रूरत पड़ी। उस तरह-तरह के काम के लिए नये शब्दों
की ज़रूरत हुई। इन शब्दों के मूल अंग्रेजी प्रतिशब्द पहले-से प्रचलन में थे। इसलिए
शब्दावली बनाने वाले लोगों ने अंग्रेजी के शब्दों के अर्थ के अनुरूप हिन्दी में
प्रतिशब्द बनाए। कुछ प्रतिशब्द पहले से प्रचलित शब्दों को ग्रहण करके, उनके साथ
जोड़ दिए गये। लेकिन जो नये शब्द बनाए गए, वे प्रायः संस्कृत की धातुओं में
यथावश्यकता उपसर्ग और प्रत्यय जोड़कर बनाये गये थे। एक धातु में प्रत्यय और उपसर्ग
जोड़कर अलग-अलग अर्थ देनेवाले सैकड़ों नये शब्द बना लेने की यह खूबी सिर्फ संस्कृत
में विद्यमान थी। और संस्कृत का प्रयोग भारत के लोग सदियों से करते चले आ रहे थे।
हर भारतीय भाषा का पढ़ा-लिखा आदमी संस्कृत अवश्य पढ़ता था। धार्मिक कर्म-काण्ड,
पूजा-पाठ, स्तुतियों आदि में न केवल संस्कृत, बल्कि देवनागरी का उपयोग भी अखिल
भारतीय स्तर पर होता चला आ रहा था। इसलिए स्वाभाविक रूप से हिन्दी के विविध
प्रयोग-क्षेत्रों में जो नये शब्द गढ़े गये, उनका आधार संस्कृत ही बनी। ऐसा ही
निर्देश संविधान के अनुच्छेद 351 में भी दिया गया था।
किन्तु हम उच्छृंखल भारत-वासियों को तो हर बात का
मज़ाक उड़ाने की आदत थी। संस्कृत कभी न आनी की पैरोडी तो हम बचपन में गाते ही थे।
अब हिन्दी में संस्कृत शब्दों की भर्ती होते देख, हमारा वह पैरोडीकार मन इस नयी
हिन्दी की भी पैरोडी बनाकर, उसका मज़ाक उड़ाने के लिए मचलने लगा। यदि हम तनिक भी
समझदार होते तो ऐसा करने से पहले सौ बार सोचते। यदि हमारी राष्ट्रीयता की भावना
बलवती होती तो हम अपनी ही भाषा का मज़ाक न बनाते, न संस्कृत का, न हिन्दी का, न
तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, उड़िया आदि का। दूसरों का मज़ाक उड़ाने की
दुष्प्रवृत्ति गँवार यानी अपरिष्कृत अभिरुचि वाले समाज में बहुत अधिक होती है।
इसका निदर्शन हमारे प्राचीन ग्रंथों में भी हुआ है। और इसमें कोई संदेह नहीं कि
हमारे समाज का बहुत बड़ा हिस्सा परंपरागत रूप से कम पढ़े-लिखे लोगों का है। जो
पढ़े-लिखे लोग हैं भी वे केवल साक्षर हैं, सुशिक्षित नहीं। आज भी कोई भला आदमी
अच्छा काम करने निकलता है, तो बुरे काम में पूरी तरह रच-बस कर पारंगत हो चला हमारा
समाज उसका उपहास उड़ाता है। सब लोग सड़क पर कचरा फेंक रहे हों और आप इस आचरण के विपरीत
जाकर सड़क पर पड़ा कचरा बीनना शुरू कर दें तो सबसे अधिक संभावना यही है कि वे सब
लोग मिलकर आपका मज़ाक उड़ाएँगे। बुरी तरह भ्रष्ट हो चुके सरकारी तंत्र में कोई एक
ईमानदार कर्मचारी अथवा अधिकारी आ जाए, तो सारे बेईमान कर्मचारी एकजुट होकर उसका
मज़ाक उड़ाने लग जाएँगे। पहले यही संस्कृत के साथ और तदनन्तर हिन्दी के साथ हुआ।
हमारा मन जाता है अंग्रेजी के साथ। आये या न आये
पर मन करता है अंग्रेजी में काम करने का। नैसर्गिक रूप से हम अंग्रेजी नहीं जानते।
बहुत कोशिश के बाद जो थोड़ी-बहुत सीख पाते हैं, उसकी नुमाइश करने का कोई मौका हम
चूकते नहीं। हिन्दी हमें घुट्टी में मिली। हिन्दीतर भाषियों को भी उनकी अपनी-अपनी
मातृभाषा अपनी माँ की छाती से दूध पीते-पीते समझ आने लगी। लेकिन कितनी भारी
विडंबना है कि वही लोग जब सयाने हो जाते हैं तो कहते हैं कि अंग्रेजी आसान लगती
है, अपनी भाषा कठिन!
अंग्रेजी के कसीदे पढ़िये। आपको किसने रोका है! प्रजातंत्र की यही
खासियत है। यहाँ हर किसी को अपनी बात कहने और अपने तरीके से जीने की आज़ादी है।
लेकिन इसका आशय यह तो नहीं कि आप की यह आज़ादी दूसरों के स्वाभिमान और
राष्ट्र-गौरव का अतिक्रमण करने लगे। जिसे अंग्रेजी पसंद थी, वह लाख अंग्रेजी सीखे,
किसे एतराज है! किन्तु ऐसे अंग्रेजी-परस्त लोगों ने हिन्दी और इतर भारतीय भाषाओं का
बार-बार उपहास करके उसी आदत का परिचय दिया है जो गँवार, ज़ाहिल लोगों में
स्वाभाविक रूप से पायी जाती है।
प्रो. रघुवीर ने 'अ कॉम्प्रीहेन्सिव इंग्लिश-हिन्दी
डिक्शनरी' में
बहुत-से अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी प्रतिशब्द प्रस्तावित किये। और ये सब शब्द
संस्कृत धातुओं पर आधारित थे। प्रो. रघुवीर को हिन्दी-विरोधी सज्जनों की
कटूक्तियों का सामना करना पड़ा। इन कटूक्तिकारों में देश के बहुत सम्मानित और
जिम्मेदार पदों पर आसीन राजनेता भी शामिल थे। इस क्रम में बहुत-से ऐसे पदबन्धों को
भी प्रो. रघुवीर का रचा हुआ बताया जाने लगा, जो वास्तव में प्रो. रघुवीर ने कभी
सोचे भी न होंगे। उदाहरण के लिए रेलगाड़ी के लिए लोगों ने कहा- लौहपथ-गामिनी,
सिग्नल के लिए कहा- आवक-जावक सूचक यंत्र, गले में बाँधने वाली टाई के लिए कहा-
कंठ-लंगोट, चाय के लिए कहा- दुग्ध एवं शर्करा-युक्त पर्वतोत्पादित शुष्क पेय
पदार्थम्- और भी न जाने क्या-क्या उपहास-जनक पदबंध बनाए गये। सच्चाई यह है कि
प्रो. रघुवीर ने इस तरह के पदबंधों की रचना कभी की ही नहीं। और यदि की भी तो इसमें
बुराई क्या है? क्या अंग्रेजी में ऐसे पद नहीं हैं? क्या ऐसे बेहूदा आविष्कार वैज्ञानिकों ने
नहीं किये, जिनका मानव-जीवन के लिए कोई सकारात्मक उपयोग नहीं है? बंदूक-पिस्तौल, ऐटम
बम आदि आविष्कारों से मानव ने कौन-सा तीर मार लिया? लेकिन इन पर तो आप नहीं हँसते। उत्तर
प्रदेश, मध्य प्रदेश में बिलकुल मरघिट्ठे, मुफलिस दिखने वाले लोगों को दुनाली
टाँगे घूमते देखता हूँ तो खुद से पूछता हूँ कि इनके पास ऐसी कौन-सी संपत्ति है,
जिसकी रक्षा के लिए इन्हें बन्दूक की ज़रूरत पड़ गयी? लेकिन यह जानकर भी उनके ऊपर हँसने का
जोखिम नहीं उठाया जा सकता। क्यों? कहीं सटक गये और गोली मार दी तो!
किन्तु हिन्दी अथवा किसी भी भाषा के साथ यह जोखिम
नहीं है। हिन्दी तो इस देश में बुधुआ की सुन्दर, जवान लुगाई है। और बुधुआ कब का मर
चुका। अब इस सुन्दर, जवान लुगाई के साथ सोने और रात गुजारने की सबको आज़ादी है। जो
इस हद तक नहीं जाना चाहता, वह भी इसका मज़ाक उड़ाकर अपनी और अपने कुत्सित
अभिरुचि-युक्त साथियों की दिलजोई तो कर ही सकता है।
इसलिए हम गाहे ब गाहे देखते हैं कि हिन्दी के नाम
पर तरह-तरह का मज़ाक सामाजिक संचार-माध्यमों के ज़रिए लोगों के बीच प्रचलित हो
जाता है। बहुत-से लोग विश्वविद्यालय शब्द का मज़ाक बनाते हैं। उन्हें लगता है कि
युनिवर्सिटी इसकी तुलना में सरल शब्द है। पता नहीं, इनमें से कितने लोगों को
युनिवर्सिटी की अंग्रेजी वर्तनी आती है! यदि किसी को आती है, तो हिन्दी अथवा अपनी
हिन्दीतर मातृभाषा में विश्वविद्यालय लिखने का सलीका नहीं होगा, यह विचार भी हमारे
मन में नहीं आता। खैर.. विश्वविद्यालय तो हिन्दी कोशों में समाहित और पढ़े-लिखे
लोगों में प्रचलित शब्द है। किन्तु 'त्रि-चक्र वाहन' के बारे में क्या विचार है? क्या किसी शब्द-कोश
में यह पद किसी ने देखा है? लेकिन आजकल तिपहिया वाहन, यानी ऑटो-रिक्शा के
लिए उपहास के तौर पर इस हिन्दी प्रतिशब्द का बड़ा चर्चा है। आपत्ति करने पर इस
शब्द को लेकर हिन्दी का मज़ाक उड़ाने वाले बड़ी मासूमियत से उत्तर देते हैं कि यह
तो केवल एक मज़ाक है। इसमें बुरा मानने की क्या बात है?
हमें लगता है कि अपने देश की भाषा, संस्कृति और
सभ्यता में यदि वाकई कोई बहुत भारी दोष हो तो उसे दूर करने की नीयत से किया गया
उपहास शायद क्षम्य हो भी सकता है। किन्तु यदि ऐसी कोई कमी न हो, तो उस कमी की
कल्पना करके किया गया उपहास अक्षम्य है। ऐसे उपहास में शामिल लोगों को न्यायालय
में खींचना चाहिए और ऐसा सबक सिखाया जाना चाहिए कि वे कभी भूल कर भी फिर से ऐसा
दुस्साहस न करें।
इति सिद्धम्।
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