प्रकृति की सब
सुन्दरताएं।
मेरे मन को रोज
रिझाएँ।
चढ़ विमान जब उड़ा
गगन में।
झाँका धरती के आँगन
में।
हरे चंदोवे तने हुए
थे।
जहाँ-जहाँ तक आँखें जाएँ।
शस्य श्यामला धरती
धानी।
लगती थी
जानी-पहचानी।
मैदानों के मध्य
विसर्पी
इठलाती बहतीं
सरिताएँ।
दूर-दूर तक नीला
सागर।
चिरसंगिनी धरा को
छूकर।
क्या कहता था पता
नहीं पर।
क्या करता था क्या
बतलाएँ।
प्रणय निवेदित करता
शायद।
या गाता था अनुनय के
पद।
दूर झटक देती थीं
उसको।
वसुधा की अनुदार
भुजाएँ।
दूर क्षितिज पर नीला
अम्बर।
थकित-चकित प्रकृति
को छूकर।
तकता था विस्मय से
भरकर,
जगती की सुन्दर
रचनाएँ।
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