Tuesday, 23 May 2017

डाक यानी पुकार यानी ध्वनि
कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ ठाकुर का प्रसिद्ध गीत है- जदि तोर डाक शुने केऊ ना आशे, तॉबे एकला चॉलो रे। इस गीत में डाक शब्द का अर्थ है पुकार, आवाज लगाना। यदि तुम किसी को आवाज लगाकर बुलाओ और कोई तुम्हारी पुकार या आवाज सुनकर भी न आये, तो तुम अकेले ही चल दो।

कबीलाई संस्कृतियों में लोग दूर से चिल्लाकर एक दूसरे के संदेशे देते-लेते थे। एक व्यक्ति चिल्लाकर संदेश सुनाता, दूर खड़ा व्यक्ति वह संदेश सुनता और पुनः दूसरी दिशा में चिल्लाकर उसे संप्रेषित करता। यह सिलसिला चलता जाता और कुछ ही देर में संदेशा दूर तक पहुँच जाता। यही थी डाक देकर, यानी पुकारकर संदेशा पहुँचाने की प्राचीन पद्धति। जब संदेशे लिखकर दिए जाने लगे तो भी नाम वही रहा, पद्धति बदल गई। संदेशे को किसी कागज या कपड़े, भोजपत्र आदि पर लिखकर, किसी नलकी में सहेजकर, या लिफाफे आदि में रखकर हरकारे को थमा दिया जाता। वह दौड़ता हुआ जाता और गंतव्य तक संदेशा पहुँचा आता। दूरी अधिक होती तो कई हाथों से गुजरता हुआ संदेशा अपने गंतव्य तक पहुँचता। हरकारा जिस साँड़िन पर बैठकर ये दूरियाँ तय करता उसे डाकिन कहा जाता था। अर्थान्तर होने पर डाकिन के अन्य गर्हित अर्थ भी हुए। कालान्तर में संदेश या चिट्ठियाँ, तार आदि पहुँचाने, लाने-ले जाने के लिए एक पूरा विभाग खुल गया। इंतजाम तो ढेरों हुए, लेकिन विभाग का मूल काम वही रहा- संदेशों का आदान-प्रदान। इसलिए उसे नाम मिला डाक विभाग। प्रौद्योगिकी का चमत्कार हुआ और संदेशे फोन से लिए दिए जाने लगे। फोन यानी आवाज या ध्वनि यानी डाक।
जब लुटेरे अपने लक्ष्य को सूचना देकर, उसे बताकर यानी पूरी धौंस के साथ और जोर-जबर्दस्ती करके उसका धन लूट ले जाएँ तो उसे डाका डालना कहा जाता है। हमें तो लगता है कि आवाज़ देकर, यानी बताकर जबरिया किसी की संपत्ति ले जाना ही डाका डालने में मुख्य बात है। भारतीय कानून में डकैती की परिभाषा इस कृत्य में शामिल व्यक्तियों की संख्या से निर्धारित है। पाँच अथवा उससे अधिक हथियारबंद व्यक्तियों द्वारा की गई लूटपाट डकैती कहलाती है।

यह शब्द बांगला, उड़िया और पूरे गंगा-यमुना दोआबे के साथ-साथ बर्मा में भी प्रचलित है। डकैती में अस्त्र-शस्त्र-प्रयोग और संख्या का महत्त्व तो बाद में हुआ। पहले इस कार्य में मूल भावना पुकार लगाने और जोर-जबर्दस्ती की ही रहा करती थी। इसीलिए हम अंगुलिमाल और वाल्मीकि को भी डाकू ही कहते हैं, हालांकि वे दोनों अकेले ही अपना काम करते थे। अकेले करते थे, किन्तु आवाज़ लगाकर अपने शिकार को रोकते थे। अंगुलिमाल ने महात्मा बुद्ध को आवाज़ लगाई- रुक जा। बुद्ध रुक गए और पलटकर बोले- मैं तो रुक गया, तू कब रुकेगा?  वाल्मीकि का कार्य-शैली भी ऐसी ही थी।
इससे सिद्ध है कि डाकना यानी आवाज़ लगाना ही डकैती में भी मूल क्रिया रही है।

छककर खा लेने पर उदर की वायु गले के रास्ते बाहर निकलती है, जिसके साथ स्वर-यंत्र से कुछ आवाज भी निकल जाती है। इसी को डकार कहते हैं। तृप्ति का प्रतीक है डकार। लेकिन एक विशेष प्रकार की ध्वनि उसका मुख्य लक्षण है। इस ध्वनि का नाम डकार क्यों पड़ा? शायद इसलिए की ध्वनि का एक पर्याय कभी डाक रहा होगा।
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