Wednesday, 17 May 2017



आलेख
अनुवाद -एक महायज्ञ
डॉ. रामवृक्ष सिंह
पश्चिम में अनुवाद की लम्बी परम्परा रही है। खासकर बाइबल के अनुवाद के व्याज से इस दिशा में सैद्धान्तिक रूप से बहुत कुछ सोचा, कहा और लिखा गया और किया तो गया ही। भारत में अनुवाद के बारे में वैसा चिन्तन नहीं मिलता। अलबत्ता हाल के कुछ दशकों में उसका व्युत्पत्तिक अर्थ जरूर किया गया- अनु+वाद, यानी जो किसी के कहने के बाद कहा गया हो। यहाँ अनुवाद की भाषावैज्ञानिक व्याख्या अथवा विश्लेषण उद्देश्य नहीं। उद्देश्य है उसके उन व्यावहारिक पक्षों को सामने लाना जो अनुवाद-कर्म में संलग्न प्रत्येक व्यक्ति के समक्ष आते हैं।
हमारे लिए अनुवाद का संगत अर्थ है पहले से किसी भाषा में अभिव्यक विषयवस्तु को किसी दूसरी भाषा में यथाशक्य उसी अर्थ, रूप और शैली में अभिव्यक्त करना। इस प्रपत्ति में कई पूर्वापेक्षाएं हैं, जिनकी मीमांसा कर लेना यहाँ समीचीन रहेगा।
पहले से किसी भाषा में अभिव्यक्त विषयवस्तु, यानी जिस भाषा (स्रोत भाषा) में अभिव्यक्ति (मूल सामग्री) उपलब्ध है, उसका अनुवाद को पर्याप्त ज्ञान होना आवश्यक है। साथ ही, उस विषयवस्तु का भी ज्ञान होना ज़रूरी है। लिहाज़ा अनुवादक होने के लिए स्रोत भाषा का ज्ञाता होना और कथ्य सामग्री का जानकार होना, दोनों ही आवश्यक है। इन दोनों पूर्वापेक्षाओं की पूर्ति होने पर अर्थ का अभिगम हो जाता है। अनुवाद समझ जाता है कि स्रोत भाषा में क्या कहा गया है।
स्रोत भाषा में अभिव्यक्त विषयवस्तु को दूसरी भाषा (लक्ष्य भाषा) में उसी अर्थ, रूप और शैली में अभिव्यक्त करने पर ही अनुवाद का कार्य संपन्न होगा। यहाँ सबसे ज़रूरी घटक है अभिव्यक्ति-क्षमता। कबीर ने ब्रह्म रस के बारे में कहा था- गूँगे केरी सर्करा खावै अरु मुस्काय। अर्थ तो समझ आ जाए, किन्तु उसे अभिव्यक्त करने की क्षमता ही न हो तो अनुवाद कैसे होगा? इसके लिए ज़रूरी है कि अनुवाद में प्रवृत्त व्यक्ति मौलिक रूप से लिखने यानी सर्जनात्मक लेखन में निष्णात हो। अंग्रेजी की यह उक्ति भ्रामक है कि जो लिख नहीं सकते, वे अनुवादक बन जाते हैं (It is their folly or fate, those who cannot write- they translate)। हमारा कहना है कि जो लिख नहीं सकता, वह अनुवाद क्या खाक करेगा? और मौलिक लेखन वही कर सकता है, जिसका भाषा पर पूरा अधिकार हो, भाषा जिसकी वश-वर्तिनी हो। लक्ष्य भाषा पर पूरी पकड़ होने पर ही अनुवाद में निष्णात हुआ जा सकता है। मौलिक लेखन की यह योग्यता तब तो और भी ज़रूरी हो जाती है, जब अनुवाद में केवल अर्थ ही नहीं, बल्कि रूप और शैली का भी अनुकरण और अनुसृजन किया जाना हो। कविता का अनुवाद कविता में, गद्य का अनुवाद गद्य में तभी संभव होगा, जब अनुवादक को इन सभी विधाओं में मौलिक लेखन का अभ्यास हो।
अब सवाल उठता है कि मौलिक लेखन कौन कर सकता है? किसी के मन में खूब सारे विचार आते हों, किसी को ढेरों विषयों का ज्ञान हो, किसी को खूब जानकारी हो, तो क्या वह कवि, लेखक या नाटककार बन जाएगा? जरूरी नहीं। मौलिक लेखन के लिए ज़रूरी है टिककर बैठना, एकाग्रचित्त होकर धैर्य-पूर्वक लिखना। यही पूर्वापेक्षा अनुवादक से भी की जाती है। यदि कोई टिककर घण्टा दो घण्टा बैठ नहीं सकता तो वह न कुछ लिख सकता है न अनुवाद कर सकता है। मौलिक लेखन में तो चित्त की चंचलता शायद स्वीकार भी हो जाए, किन्तु अनुवाद-कर्म में उसके लिए कोई गुंजाइश नहीं। एकाग्रचित्त होकर, धैर्यपूर्वक बैठे बिना गंभीर अनुवाद हो ही नहीं सकता।
इसीलिए पश्चिम में बाइबल का अनुवाद करने के लिए जिन विद्वानों को आमंत्रित किया जाता था, वे सुबह नहा-धोकर, पूजा-पाठ के बाद पूरे पवित्र मन से एकाग्रचित्त होकर अनुवाद करने बैठते थे। बाइबल की शुचिता को ध्यान में रखते हुए तो यह ज़रूरी था ही, अनुवाद-कार्य की गंभीरता की दृष्टि से भी यह आवश्यक था।
इस प्रकार, जब लक्ष्य भाषा में रचनात्मक लेखन करनेवाला सर्जक किसी दूसरी भाषा से अनुवाद करने बैठेगा तो निश्चय ही उसकी अनूदित सामग्री में मौलिक लेखन के गुण आ जाएँगे। ऐसा अनुवाद पढ़कर यह नहीं लगेगा कि उसमें स्रोत भाषा का अनुचित दखल है। वह सामग्री अनूदित होकर भी मूल सामग्री प्रतीत होगी।
सभी अनुवादक स्रोत और लक्ष्य, दोनों भाषाओं के सर्वांगपूर्ण ज्ञाता हों, यह ज़रूरी नहीं। शायद शक्य और व्यवहार्य भी नहीं। इसीलिए अनुवाद करते समय शब्द-कोशों और शब्दावलियों तथा अन्य सन्दर्भ सामग्री की ज़रूरत पड़ती है। यही कारण है कि प्रायः सभी अनुवादक ज़रूरत पड़ने पर इन सहायक सामग्रियों का उपयोग करते हैं। कोई-कोई अति आत्मविश्वासी अनुवादक शब्द-कोशों से मदद नहीं लेते. जिसका परिणाम यह होता है कि उनके अनुवाद में अर्थ का अनर्थ हो जाता है। अनुवाद करने में शब्द-कोश पर पूरी तरह आश्रित न भी हुआ जाए, किन्तु अनूदित पाठ की गुणवत्ता की परख के लिए और उसमें प्रामाणिकता लाने के लिए तो शब्द-कोशों को देखना चाहिए ही। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि शब्द-कोश अथवा शब्वादवली कब देखी जाए? अनुवाद-प्रक्रिया की शुरुआत में, मध्य में या बाद में?
अपने तीन दशक से अधिक दीर्घ अनुभव के आधार पर मैं यह कह सकता हूँ कि अनुवाद-प्रक्रिया में बीच-बीच में आनेवाले कठिन शब्दों के प्रतिशब्द जानने के लिए बार-बार कोश पलटने के बजाय, पहले अपनी जानकारी के अनुसार प्रतिशब्द लिख लेना बेहतर रहता है। ये प्रतिशब्द हमारे अपने अर्जित भाषिक कोश, लोक भाषाओं और परिनिष्ठित भाषा-जगत से आते हैं। स्रोत चाहे जो हो, किन्तु स्वाभाविक रूप से अनुवादक की स्मृति से गृहीत इन प्रतिशब्दों में लक्ष्य भाषा का रूप-विन्यास, अर्थच्छटा और मुहावरेदानी समाहित होती है। कोशीय प्रतिशब्दों में वह बात नहीं होती। इसलिए सहज रूप से जो शब्द सूझते हैं, उनकी स्वीकार्यता पाठकों में अधिक होती है और उनके समावेश से अनूदित होकर भी हमारा पाठ सहज लगता है। ऐसा लगता है जैसे वह अनुवाद न होकर मूल रूप से लिखी गयी सामग्री हो।
इसका आशय यह हुआ कि अनुवाद करने की प्रक्रिया में हमें शब्दों के लिए अटकना नहीं चाहिए। (कई दशक से यही नारा लगा-लगाकर अपने यहाँ हिन्दी में लिखने के लिए सरकारी कर्मचारियों को प्रेरित किया जा रहा है)। किन्तु अनुवाद पूरा होने के उपरान्त कोश देखकर उन शब्दों के प्रतिशब्द लिख लिए जाने चाहिए जो अनुवाद नहीं हो पाए थे। इसके बावजूद कुछ शब्द अननूद्य ही रह जाते हैं। केवल अननूद्य शब्दों को यथावत छोड़ना चाहिए, न कि सभी आगत शब्दों को। सभी आगत शब्दों को अननूद्य छोड़ने का परिणाम लक्ष्य भाषा के लिए विनाशकारी हो सकता है और कालान्तर में उसमें शब्द-निर्माण की प्रक्रिया बाधित होकर, भाषा का विकास रुक सकता है अथवा पूरी विकास-प्रक्रिया विरूपित हो सकती है। हिन्दी में स्कूल के लिए विद्यालय, पाठशाला, कॉलेज के लिए महाविद्यालय, यूनिवर्सिटी के लिए विश्वविद्यालय, ऑफिस के लिए कार्यालय, फैमिली के लिए परिवार, पेरेंट्स के लिए माता-पिता, वाइफ के लिए पत्नी/धर्मपत्नी, हसबैंड के लिए पति आदि अनेक शब्द सदियों से प्रचलन में रहे हैं, किन्तु हम अंग्रेजी के शब्द ला-लाकर हिन्दी शब्दों को जबर्दस्ती अपनी भाषा से बाहर खदेड़ रहे हैं। यदि स्रोत भाषा की सामग्री देखते ही हम कठिन प्रतीत होनेवाले शब्दों के लिए कोश खोलकर प्रतिशब्द लाने लगेंगे तो बहुत संभव है कि उस सामग्री की अर्थ-व्यंजनाएं हमारे मस्तिष्क में कभी आएँ ही नहीं और हम कोशीय अर्थों के ही भ्रम-जाल में उलझकर रह जाएँ। मसलन work in progress का हिन्दी अनुवाद हुआ- कार्य प्रगति पर है। ऐसा इसलिए कि अनुवादक ने progress शब्द देखते ही कोश उठाया। वहाँ उसे प्रतिशब्द मिला- प्रगति। बस उसने और कुछ न लिखकर प्रगति शब्द ही वहाँ से उठा लिया। गुजराती में इसी को लिखा गया- काम चालू छे। शायद वहाँ के अनुवादक ने मौलिक रूप से सोचा और इस ज़रा-से वाक्य के लिए बेकार में कोश देखने की ज़रूरत नहीं समझी।
आज कार्यालयीन साहित्य का बहुत-सा अनूदित पाठ अटपटी हिन्दी की मिसाल प्रस्तुत करता दिखता है। बहुत बड़ा अमला इस अटपटी हिन्दी के विनिर्माण में जुटा हुआ है। इसे लोग कार्यालयीन हिन्दी कह रहे हैं। मेरी राय में यह विरूपित हिन्दी है, जो अंग्रेजी की प्रेत-छाया से बुरी तरह ग्रस्त है।
एक ही भाषा के कई तरह के व्याकरण नहीं हो सकते, शब्द चाहे अलग-अलग हों। आसान शब्दों वाली, नियम-शैथिल्य से ग्रस्त और प्रायः अनपढ़ों के मध्य तथा अनौपचारिक जीवन-संदर्भों में प्रयुक्त भाषा को सी.ए. फर्ग्युसन प्रभृति विद्वानों ने लोअर कोड/अनौपचारिक कोड की भाषा कहा। इसके विपरीत परिपाटीबद्ध, शिक्षित समाज के व्यवहार में आनेवाली प्रांजल शब्दावली-युक्त उसी भाषा के सुष्ठु रूप को उन्होंने अपर कोड/औपचारिक कोड की भाषा का नाम दिया। कोड अलग होने के बावजूद भाषा का मूल व्याकरण एक ही रहता है। किन्तु कार्यालयीन हिन्दी का तो व्याकरण ही अलग है, कुछ-कुछ अंग्रेजी की तर्ज़ का! (उदाहण-- ) यह इसलिए हुआ क्योंकि कार्यालयीन हिन्दी की रचना अनुवाद से हुई है और अनुवाद करनेवाले लोग हिन्दी के सर्जक नहीं रहे। उनमें भाषा-कर्म जैसे गंभीर क्षेत्र की योग्यता ही नहीं थी।



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