आलेख
भाषा नीति की भूलें
डॉ. रामवृक्ष सिंह
लगभग सड़सठ वर्ष तक कोशिश करने के बाद भी यदि
किसी कार्य में इच्छित सफलता न मिले तो यह मान लेना चाहिए कि हमारी दिशा, हमारे
प्रयास या हमारी नीति में कहीं न कहीं कोई त्रुटि रह गई है। भारत सरकार की राजभाषा
नीति के बारे में भी हमारा यही मंतव्य है। भूल का आभास होने और उसे सुधार लेने पर
हम नए सिरे से शुरुआत कर सकते हैं, किन्तु पुरानी रवायत को ही सही मनवाने की भोली
ज़िद के चलते हम कभी भी अपने गंतव्य पर नहीं पहुँच सकते।
राजभाषा नीति बनाने और उसे क्रियान्वित करने में
हमसे जो भूलें हुईं, उनका यथातथ्य मूल्यांकन होना चाहिए। यह मूल्यांकन वही व्यक्ति
अथवा संस्था कर सकती है, जो नीर-क्षीर विवेक-संपन्न हो और सही बात जगजाहिर कर देने
पर जिसे अभयदान प्राप्त हो। राजभाषा नीति का संबंध राज-काज से है। राज-कर्मी ही
नीति के अंतर्गत लक्ष्य निर्धारित करते हैं, वही इस नीति का अनुपालन करते हैं, वही
इस अनुपालन की प्रगति संबंधी आँकड़े प्रस्तुत करते हैं, वही प्रगति का जायजा लेते
हैं, वही सुधारात्मक उपाय सुझाते हैं, वही उपायों को क्रियान्वित करते हैं। यानी राजभाषा
नीति का पूरा चक्र राज-कर्मियों के मध्य चलता है। भारत में भ्रष्टाचार का जो आलम
है, उसमें यह मानना बहुत बड़ी भूल होगी कि राजभाषा कार्यान्वयन संबंधी आँकड़ों का
दूधिया आँकड़ों में तनिक भी पानी नहीं मिलाता। बल्कि यही मानना समीचीन होगा कि
दूधिया दूध में पानी नहीं मिलाता, बल्कि पानी में दूध मिलाकर, समूचे द्रव के दूध
होने का भ्रम उत्पन्न करता है। वस्तुतः है वह पानी ही. पानी जो दूध की रंगत लिए
हुए है। इस रूपक में दूध है हिन्दी और पानी है अंग्रेजी। दूधिए हैं राजभाषा-कर्मी।
राजभाषा हिन्दी की गाड़ी अपने गंतव्य तक नहीं
पहुँची तो निश्चय ही कुछ न कुछ गड़बड़ हो गई होगी। या तो कहीं पटरी उखड़ गई होगी,
या उसका इंजन फेल हो गया होगा, या कोई ऐसी दुर्घटना हो गई होगी जो प्रकाश में नहीं
आई या गाड़ी को किसी दस्यु-दल ने बंधक बना लिया होगा और पूर्व-निर्धारित गंतव्य के
बजाय दस्यु-गण उसे किसी अन्य जगह ले गए होंगे। इन सभी संभावनाओं की पड़ताल करनी
होगी, क्योंकि गंतव्य पर बहुत-से लोग आतुरता से गाड़ी के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे
हैं। यह प्रतीक्षा पैंसठ वर्ष लम्बी हो जाएगी, ऐसा हममें से किसी ने नहीं सोचा था।
पैंसठ वर्ष किसी भी राष्ट्र के जीवन में बहुत लम्बा अर्सा होता है। तो आइए पड़ताल
करें कि हमारी राजभाषा नीति के निर्माण और कार्यान्वयन में क्या भूलें रह गईं,
जिनके कारण हिन्दी की गाड़ी रास्ते में ही अटक गई है।
पन्द्रह
वर्ष में हिन्दी को राज-काज योग्य बना लेने का प्रावधान- हिन्दी में एक नीतिपरक दोहा प्रचलित है,
जिसे हिन्दी प्रान्तों का बच्चा-बच्चा जानता है-
"काल करे सो आज कर, आज करे सो अब। पल में
परलय होयगी, बहुरि करेगा कब।।"
जब हमने
हिन्दी को राज-काज की भाषा बनाया, तभी उसे पूरी तरह लागू कर देना था। वह सक्षम थी।
उसका लगभग हजार वर्ष का इतिहास था। उसमें राज-काज हुआ भी था। उसमें बोलना, पढ़ना,
लिखना सब कुछ संभव था। फिर भी हमने अंग्रेजी से हिन्दी में अन्तरण के लिए पन्द्रह
वर्ष की मियाद निर्धारित कर दी। अपनी सुस्तहाली के लिए कुख्यात सरकारी तंत्र को
यथा-स्थिति बनाए रखने का बहुत बड़ा बहाना मिल गया। पीछे देख-आगे चल की नीति में
विश्वास करने वाला सरकारी तंत्र आज तक अंग्रेजी की गिरफ्त से छूट नहीं पाया है।
कभी छूटेगा, इसका भी कोई भरोसा नहीं। हम कहते हैं कि हिन्दी को प्रेरणा और
प्रोत्साहन से व्यवहार में लाना है। राजभाषा नीति में दण्ड का कोई प्रावधान नहीं
है। कुछ समय पहले गृह राज्य-मंत्री श्री रिजिजू ने कहा था कि उत्तर भारतीय लोगों
को कानून तोड़ने में मज़ा आता है। इनमें वे कानून भी शामिल हैं, जिनका पालन न करने
या जिनको तोड़ने पर दण्ड का प्रावधान है। हिन्दी कमोबेश मुख्यतया उत्तर भारतीयों
की भाषा है। यदि उत्तर भारतीय लोगों को दण्ड-संहिताओं यानी दण्ड के प्रावधान-युक्त
कानूनों को तोड़ने में मज़ा आता है, तो क्या उन्हें बिना दण्ड के प्रावधान वाले
राजभाषा कानून को तोड़ने में तनिक भी संकोच होता होगा?
हम यह
नहीं कहते कि राजभाषा नीति के उल्लंघन पर दण्ड का प्रावधान होना चाहिए। हम तो केवल
यह कह रहे हैं कि पहले दिन से ही यह व्यवस्था करनी चाहिए थी कि आज से सब काम
हिन्दी में होगा। उस समय राष्ट्र-वाद के जोश में लोगों से जो कुछ कहा जाता वे
सहर्ष मान जाते और वैसा करने लगते। बाद में लोहा ठण्डा पड़ गया और लोगों ने अपनी
राष्ट्रीयता की भावना से समझौता कर लिया। अब तो हालत यह है कि लोग अंग्रेजी से ही
ज्यादा प्यार करते हैं। हिन्दी से प्यार करनेवाला कोई नहीं।
राजभाषा
कार्यान्वयन के लिए अलग से संवर्ग बनाने की ज़रूरत नहीं थीः सरकारी काम-काज की एक बहुत
बड़ी विशेषता है हर काम के लिए पर्याप्त कार्मिकों की व्यवस्था। हमारा प्रजातंत्र
समाजवादी प्रजातंत्र है। इस तंत्र में सरकार का काम देश की व्यवस्था देखना तो है
ही, साथ ही, कहीं न कहीं उसके माध्यम से देश के ज्यादा से ज्यादा लोगों को नौकरी
यानी रोज़गार भी मुहैया कराया जाता है। हिन्दी के राजभाषा बनते ही सरकार में इसे
रोजगार के अवसर के रूप में देखा गया। यह बहुत बड़ी भूल थी। सरकार का काम तो किसी न
किसी भाषा में होना ही था, भाषा सरकारी काम का माध्यम होती है। उस माध्यम के लिए
अलग से अमला रखने की ज़रूरत नहीं थी। अधिक से अधिक यह करना था कि सरकारी
कर्मचारियों को हिन्दी सिखाते, हिन्दी में काम करना सिखाते, उन्हीं से कहते कि अब
आप अपना समस्त कार्य हिन्दी में करें। बहुत जटिल, तकनीकी और विधिक सामग्री के लिए
केन्द्रीकृत अनुवाद की व्यवस्था कर देते। हर विभाग में राजभाषा अधिकारी, हिन्दी
अनुवादक आदि की व्यवस्था करते ही उस विभाग के बाकी सब कर्मचारियों ने यह मान लिया
कि यही पदाधिकारी हिन्दी का सारा काम करेगा। तब से लेकर अब तक यही सिलसिला चला आ
रहा है, पूरा दफ्तर अंग्रेजी में काम करता है और उम्मीद करता है कि राजभाषा
अधिकारी/ हिन्दी
अनुवादक उनके काम का हिन्दी में अनुवाद करे। क्या यही उद्देश्य था राजभाषा नीति का?
यदि
अनुवाद की व्यवस्था करनी ही थी तो हिन्दी से अंग्रेजी में अनुवाद की करते। सरकारी
दफ्तरों में लोग हिन्दी में काम करते और जिसे समझ न आता, उसकी सुविधा के लिए
अंग्रेजी अनुवादक हिन्दी से अंग्रेजी में तर्ज़ुमा कर दिया जाता। किन्तु हुआ इसका
उलटा। सरकारी तंत्र के निर्णय-कर्ताओं ने यह मान लिया था कि लोग मूलतः अंग्रेजी
में ही काम करते रहेंगे और उनके लिखे को अनन्त काल तक हिन्दी में अनुवाद करने की
ज़रूरत बनी रहेगी। यह मानसिकता इसलिए बनी, क्योंकि सरकारी विभागों में स्थायी रूप
से राजभाषा अनुभागों की व्यवस्था कर दी गई।
राजभाषा
संवर्ग बनाने का एक बड़ा दुष्परिणाम यह हुआ कि बाकी के अनुभागों और उनमें कार्यरत
अधिकारियों-कर्मचारियों ने खुद को हिन्दी में काम करने के दायित्व से बरी समझ
लिया। सबसे बुरा तो यह हुआ कि राजभाषा नियम 1976 के नियम 12 ने जिन प्रशासनिक
प्रमुखों को राजभाषा नीति के कार्यान्वयन का दायित्व दिया था, वे प्रशासनिक प्रमुख
भी राजभाषा कार्यान्वयन का दायित्व स्वयं लेने के बजाय राजभाषा अधिकारी के कंधे
डालकर चुपचाप बैठ गए। राजभाषा कार्यान्वयन की तिमाही बैठकों की सदारत कर लेना,
तिमाही रिपोर्टों पर हस्ताक्षर कर देना और हिन्दी दिवस पर अध्यक्षीय भाषण दे देना,
बस स्वयं को उन्होंने इतने तक सीमित कर लिया। यदि प्रशासनिक प्रमुखों ने खुद
हिन्दी में काम किया होता और अपने सभी अधीनस्थ अधिकारियों को हिन्दी में काम करने
के लिए सच्चे मायनों में प्रेरित-प्रोत्साहित किया होता, अपनी शक्तियों और पद के
गुरुत्व का इस्तेमाल अपने मातहतों से हिन्दी में काम करवाने के लिए किया होता तो
सरकारी दफ्तरों में हिन्दी की स्थिति आज से कहीं बेहतर होती। उन्होंने स्वयं
हिन्दी में काम इसलिए नहीं किया, क्योंकि उन्हें भी यही लगा कि हिन्दी में काम
करना उनका नहीं, बल्कि राजभाषा अधिकारी का काम है।
धीरे-धीरे
स्थिति यह हो गई कि हिन्दी पत्राचार, नोटिंग आदि के प्रतिशत में कमी का ठीकरा भी
वे राजभाषा अधिकारी के सिर पर फोड़ने लगे। बैठकों में इन कमियों के लिए राजभाषा
अधिकारी से ही सवाल किए जाने लगे, गोया वह ही कमी का प्रमुख कारण हो! इसका नतीज़ा यह हुआ
कि राजभाषा अधिकारी ने हिन्दी में काम की मदों के बारे में मिथ्या आँकड़े देना
शुरू कर दिया। आँकड़े मिथ्या हैं, यह प्रशासनिक प्रमुख को भी मालूम था, किन्तु उसे
इसी में सुविधा लगी। काम चाहे न करो, पर आँकड़े बढ़ा-चढ़ाकर दर्शाओ। यह शॉर्टकट
रास्ता प्रशासनिक प्रमुखों को बड़ा मुफीद लगा। निरीक्षण का प्रावधान हुआ तो
प्रशासनिक प्रमुख ने राजभाषा अधिकारी को आगे कर दिया कि निरीक्षक को जो भी उपहार
देना हो, दो; जहाँ खाना-पीना
कराना हो- कराओ; जहाँ ठहराना है ठहराओ; जैसे उससे निबटना है, निबटो; खूब घुमाओ-फिराओ; जैसे भी बन सके,
उसे प्रसन्न करो; बस मेरे ऊपर आँच न आए और वह कोई नकारात्मक टिप्पणी करके न जाए; न मौखिक न लिखित; न अब, न बाद में।
यहाँ भारत का वह भ्रष्ट वातावरण अपना काम कर गया, जिसके लिए इसकी ख्याति दुनिया भर
में है। छोटे से लेकर बड़े, लगभग हर निरीक्षणकर्ता को उसकी हैसियत के अनुसार उपहार
देने की परंपरा बन गई। उपहार का महत्त्व बढ़ता गया, राजभाषा कार्यान्वयन का महत्त्व
घटता गया। निरीक्षण मखौल बन गए। हिन्दी प्रचार-प्रसार के लिए जो चिट्ठियाँ आती
हैं, उनके अमानक, अटपटे भाषिक प्रयोग कई-कई दिन तक चुटकुलेबाजी और विनोदपूर्ण
चर्चा का विषय बने रहते हैं। इससे हिन्दी को कोई हित-साधन नहीं होता।
त्रुटिपूर्ण
नारेः हिन्दी
लागू करनेवालों ने नारा दिया- हिन्दी में काम करना आसान है। शुरू तो कीजिए। शायद
उन्हें यह भ्रम था कि जो काम आसान होता है, उसे लोग मनोयोग से करने लगते हैं। मानव
मनोविज्ञान कुछ और ही कहता है। यदि हिन्दी आसान होती तो पूर्णतया हिन्दी-भाषी
प्रान्त उत्तर प्रदेश के दसवीं और बारहवीं के लगभग 3 लाख परीक्षार्थी हिन्दी की ही
परीक्षा में अनुत्तीर्ण न हो जाते। मनुष्य कठिन से कठिन विद्या भी सीख जाता है,
बशर्ते उस विद्या से उसका हित-साधन होता हो और उस विद्या में उसे कोई चुनौती दिखाई
देती हो। हिन्दी को हिन्दी-भाषी प्रान्त के लोग घर का जोगी जोगड़ा समझते हैं। उनके
तईं हिन्दी सीखने में कोई चुनौती नहीं है। हिन्दी जानना उनके लिए कोई उपलब्धि नहीं
है। इसके उलट अंग्रेजी जानना बहुत बड़ी उपलब्धि है। लोग अपने नन्हे-मुन्नों को
अंग्रेजी के शिशु-गीत सिखाते हैं, हिन्दी के नहीं। आसान होने के नारे ने हिन्दी को
लोक-प्रिय नहीं बनाया, अलबत्ता लोगों को उससे विमुख अवश्य कर दिया।
कृत्रिम
हिन्दी का प्रचलन- सरकारी कामकाज में हिन्दी का प्रवेश अनुवाद के रास्ते हुआ। अंग्रेजी
पाठ के रूपान्तरण-पश्चात् जो हिन्दी व्यवहार में आयी, वह कहीं से सहज, सरल और
व्यवहार-सिद्ध हिन्दी नहीं थी। उसे अधिकांशतः वे लोग गढ़ रहे थे, जिनका हिन्दी में
मूल लेखन से दूर-दूर तक का कोई वास्ता नहीं था। उन्हें थोड़ी अंग्रेजी आती थी,
थोड़ी हिन्दी। इस ज्ञान के बल पर उन्हें एक अदद नौकरी मिल गई। इससे बेहतर नौकरी
मिल जाती तो वही कर लेते। किन्तु यह मिल गई, तो यही सही। लिहाजा केवल जीविका के
लिए वे इस पेशे में आ गये। उनका वेतन भी बाबुओं, बड़े बाबुओं की भाँति ही मुकर्रर
हुआ। लिहाजा इस पेशे में वही लोग टिके रहे, जिन्हें और कहीं मौका नहीं मिला।
परिणाम यह हुआ कि सरकारी कार्यालयों का बहुत-सारा साहित्य ऐसे लोगों ने रचा
जिन्हें भाषा की मूल प्रकृति का ज्ञान नहीं था।
इस
कृत्रिम कार्यालयीन हिन्दी ने दफ्तरों में हिन्दी-प्रयोग की रही-सही संभावनाओं को
भी ध्वस्त कर दिया।
सांस्कृतिक
बोध की कमी और चलताऊ रवैया- अगर मुझे कह दिया जाए कि हवाई जहाज उड़ाओ, तो
क्या मैं उड़ा पाऊँगा? कई बार हिन्दी का यान ऐसे लोगों के सहारे छोड़ दिया गया, जिन्हें उसे
संभालने, उड़ाने-उतारने का कोई शऊर नहीं था। उन्होंने अनधिकार चेष्टा करते हुए,
हिन्दी को सरल तथा अधिकाधिक लोकप्रिय बनाने के सूत्र बनाए और फतवे जारी किए।
इन्हीं लोगों में से कुछ ने कहा- जहाँ-जहाँ तत्सम और कठिन लगनेवाले शब्द हैं,
वहाँ-वहाँ अंग्रेजी के शब्द इस्तेमाल करने से भाषा आसान हो जाएगी। क्या वाकई ऐसा
हो सकता है? विश्वविद्यालय-युनिवर्सिटी, पाठशाला/शाला-स्कूल, पोशाक/वर्दी-यूनिफॉर्म, गृहकार्य-होमवर्क,
दूध-मिल्क, चाय-टी, सब्जी-वेजिटेबल, फल-फ्रूट, कलम-पेन, शलाका-पेंसिल, कूँची-ब्रश,
रंग-कलर, नाश्ता-ब्रेकफास्ट... क्या इन युग्मों में पूर्ववर्ती शब्द हमारे
लोक-व्यवहार में नहीं थे? ऐसे हजारों प्यारे-प्यारे शब्द हैं, जो
धीरे-धीरे हमारे लोक-व्यवहार से गायब हो रहे हैं। चूंकि दफ्तरों की भाषा भी कहीं न
कहीं लोक से आती है, इसलिए ये शब्द हमारे कार्यालयीन व्यवहार में भी नहीं हैं।
इनकी जगह हम अंग्रेजी के शब्द ला रहे हैं और हमारे अफसरान इसकी तरफदारी कर रहे
हैं।
त्रुटिपूर्ण
हिन्दी शिक्षण-प्रशिक्षण- दफ्तरों में और जीविकोपार्जन के अन्य क्षेत्रों
में हम जो भी काम करते हैं, उसकी नींव हमारी प्राथमिक, माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा
पर पड़ी होती है। चूंकि विभिन्न स्तरों के हिन्दी शिक्षक हमारे मन में भाषा का सही
संस्कार नहीं पैदा कर पाए और हमें सही-गलत भाषा का विवेक नहीं दे पाए, इसलिए अपने
परवर्ती जीवन में भाषा के मामले में हम भ्रमित रह जाते हैं। हिन्दी के कितने ही
शिक्षकों को ङ और ड़ का भेद नहीं मालूम। रेफ् कहां लगना है, चन्द्रबिन्दु कहाँ-
इसका विवेक भी अच्छे-अच्छों को नहीं। ऐसे लोगों से कैसी हिन्दी के प्रचार-प्रसार
की उम्मीद की जाए!
अपनी
जानकारी दुरुस्त न रखने के कारण प्रायः हिन्दी के शिक्षक हीनता-बोध से ग्रस्त रहते
हैं। बाकी विषयों के शिक्षक उन्हें बोका समझते हैं। और हिन्दी शिक्षक अपने बोकापन
में मस्त!
राजभाषा समारोहों में इन गुरुजनों को आमंत्रित कीजिए तो वे जो बातें बताते हैं,
उनका व्यावहारिक भाषा-प्रयोग से कोई लेना-देना नहीं होता। आजे की सूचना
प्रौद्योगिकी से हिन्दी को कैसे जोड़ा जाए, इसके विषय में भी वे प्रायः शून्य होते
हैं। यही नहीं, अनुवाद और अनुप्रयुक्त भाषा विज्ञान के अन्य क्षेत्रों में भी वे
नाहक घुसने की चेष्टा करते हैं। उनकी पूँजी होती है हिन्दी के स्वनामधन्य आचार्यों
की पुस्तकें अथवा अंग्रेजी विद्वानों के ग्रंथों के अनुवाद। राजभाषा कार्यान्वयन,
अनुवाद आदि का व्यावहारिक ज्ञान न होने के कारण उनके कथन में वह प्रामाणिकता नहीं
होती, जो श्रोताओं के मन में उतर कर उनका हृदय-परिवर्तन करके उन्हें हिन्दी प्रयोग
में प्रवृत्त कर सके।
हिन्दी
की वर्तमान दशा और भावी दिशा के विषय में निस्संगताः
किसी खराब चीज को आप अच्छा बताते रहें तो वह कभी ठीक नहीं हो सकती। हिन्दी
में जो कमियाँ हैं, उसमें जो सुधार हो सकते हैं, उसे समयानुकूल बनाने के लिए जो
परिवर्तन अपेक्षित हैं, इनकी बात बड़े से बड़ा विद्वान भी नहीं करता। सब हिन्दी की
महानता का बखान करते हुए, स्वस्ति-वाचन करते रहते हैं। यही कुछ समय पूर्व तक
संस्कृत के साथ होता रहा। देवनागरी की भी यही स्थिति रही।
हिन्दी
में विगत कुछ वर्षों में कितने नये शब्द आए, कितने प्रचलित शब्द प्रचलन-बाह्य हो
गये, इसका लेखा-जोखा कोई रखता है, हमें ज्ञात नहीं। अंग्रेजी अखबार तो हर वर्ष
बताते हैं कि ऑक्सफर्ड डिक्शनरी में इतने-इतने नये शब्द इस वर्ष जुड़े। दो वर्ष
पहले सेल्फी और विगत वर्ष पोस्ट ट्रुथ, अंग्रेजी में नई अवधारणाएं आती हैं, नए
शब्द आते हैं। कोशकार और अखबार, दोनों मिलकर उसका प्रचार-प्रसार करते हैं। वहाँ
कोई सरकारी अमला नहीं है इसके लिए। यहाँ तो है। अरबों रुपये खर्च करके हमने हिन्दी
में कुछ ऐसा हासिल किया, जिसे हम अंग्रेजी के बर-अक्स खड़ा कर सकें? भाषा के मामले में
अनुसंधान और विकास के नाम पर हमने चर्वण का चर्वण के अलावा कुछ किया क्या?
निरर्थक
जमावड़े और सम्मेलन- न जाने क्यों लोगों को लगता है कि सम्मेलन और बैठक करके हिन्दी को
आगे बढ़ाया जा सकता है। यह सिलसिला पिछले लगभग चालीस वर्ष से चल रहा है। दुनिया के
इस कोने से उस कोने तक हिन्दी सम्मेलन आयोजित हो चुके हैं। अपने घर में तो हिन्दी
आ नहीं पा रही, हम उसे न्यूयॉर्क और लंदन में लाने का सपना देखते हैं! आयोजक और
प्रतिभागी, सभी का मुख्य मकसद होता है पर्यटन। यह प्रवृत्ति आज की नहीं है। मनुष्य
मात्र की दुर्बलता है किसी बहाने घूमने चल देना। दुर्भाग्य से यह बहाना हिन्दी के
पल्ले पड़ गया है। कोई बताए कि इन सम्मेलनों के माध्यम से हिन्दी भाषा को जनप्रिय
बनाने में कितना योगदान मिला? कि किस सम्मेलन से हिन्दी के भाषिक स्वरूप,
व्याकरण, शब्द-कोश अथवा साहित्य को क्या हासिल हुआ? कुछ तारीखें, कुछ नगरों और विद्वानों के
नाम। इनके अलावा इन सम्मेलनों को किस लिए जाना जाएगा?
हिन्दी
के पूज्य गुरुजनों से पूछने पर कोई उत्तर नहीं मिलता। बड़े से बड़े अधिकारियों को
इसका इल्म नहीं। कुल मिलाकर हम लीपा-पोती में जुटे रहते हैं। उसमें हमें महारत
हासिल है। तो क्या हमारी हिन्दी नीति का सब लब्बो-लुआब यह लीपो-पोती ही है?
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