Monday, 15 May 2017

भारत में तलाक- डॉ. रामवृक्ष सिंह का आलेख



भारत में तलाक
डॉ. रामवृक्ष सिंह
आजकल तीन तलाक पर बड़ी पुरज़ोर बहस चल रही है। आम धारणा यह है कि मुस्लिम समाज में महिलाओं पर बड़े जुल्म होते हैं और सबसे बड़ा जुल्म होता है तीन तलाक के ज़रिए। मामला भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय के सामने है। ऐसे में आज के टाइम्स ऑफ इंडिया ने सन् 2011 की जनगणना के हवाले से भारत के सभी धर्मावलंबियों में पति-पत्नी के पार्थक्य और तलाक, दोनों की बड़ी बेबाक स्थिति प्रस्तुत की है, जो इस आलेख के अंत में तालिकाबद्ध रूप में प्रस्तुत है। (बहुत संभव है, फेसबुक की सीमाओं के चलते उक्त तालिका विरूपित हो जाए)।
टाइम्स का कथन है कि तीन तलाक की विभीषिका से तत्संबंधी समाज की महिलाओं को मुक्ति मिलनी चाहिए, इसमें कोई संदेह नहीं; किन्तु यह देख लेना भी उचित रहेगा कि भारत के अन्य धर्मावलंबियों में विवाहित दंपतियों के अलग होने और तलाक की वास्तविक स्थिति क्या है। जहाँ तक तलाक की बात है, वह हिन्दुओं, जैनियों और सिक्खों के मुकाबले मुसलमानों में दुगनी, और इसाइयों के लगभग बराबर, किन्तु बौद्धों से कम है।
लेकिन यदि विवाहित जोड़ों के अलग-अलग रहने की स्थिति देखें, यानी ऐसी स्थिति जब वे कानूनन तलाक नहीं लेते, किन्तु साथ रहते भी नहीं, बल्कि अलग-अलग रहते हैं, तो बौद्धों और इसाइयों का अनुपात बाकी की तुलना में कहीं अधिक हो जाता है। प्रति एक हजार 16.6 ईसाई और 17.6 बौद्ध व्यक्ति तलाक लेकर अथवा अन्य रूप में अलग-अलग रहते हैं। इसके बनिस्बत मुसलमानों में यह अनुपात 11.6 और हिन्दुओं में उससे थोड़ा ही कम यानी 9.1 प्रति हजार का है। सबसे कम अनुपात सिक्खों और जैनियों का है, यानी केवल 6.3 प्रति हजार।
टाइम्स का मत है कि हिन्दुओं में तलाक की दर केव 2.2 प्रति हजार है, क्योंकि वे कानूनी पचड़ों में न पड़कर आपसी रजामंदी से अलग हो जाने को अधिक तरज़ीह देते हैं। हिन्दुओं में यह सामाजिक रूप से अधिक स्वीकार्य भी है। इसके बरअक्स मुसलमानों में विधिवत तलाक की दर 4.9 प्रति हजार है, क्योंकि वे विधिवत (शरीया के अनुसार) तलाक को ज्यादा तवज्जो देते हैं।
कतिपय धर्मों/संप्रदायों में तलाक या पार्थक्य की दर इसलिए कम है क्योंकि वहाँ शिक्षा और समृद्धि अपेक्षाकृत अधिक है और समुदाय के सदस्यों की संख्या अपेक्षाकृत कम होने के कारण दंपतियों पर समुदाय का दबाव अधिक रहता है।
आम धारणा है कि मुस्लिम महिलाओं को संपत्ति के अधिकार बहुत सीमित हैं और वहाँ तलाक बहुत सरलता से और एकतरफा तरीके से दिया जा सकता है, तथा तलाक के बाद महिलाओं को कई प्रकार की सामाजिक एवं आर्थिक समस्याओं से गुजरना पड़ता है। साथ ही, आधुनिक शिक्षा, आर्थिक संपन्नता की भी बहुत कमी है। इस सब के चलते हमारे देश में मुस्लिम महिला का अपने शौहर से तलाक होना खासी मुसीबत का सबब बन जाता है। बहुत आसानी से तलाक के प्रचलन का सबसे बड़ा दुष्परिणाम देश की वे गरीब कमसिन लड़कियाँ झेलती हैं, जिन्हें अरब देशों से तफरीह और मौज-मस्ती के लिए भारत आए अधेड़ अमीर-उमराव कुछ दिनों के लिए निकाह करके अपनी बेगम बनाते हैं और फिर हस्बे-मामूल मेहर की रकम अदा करके, यहीं तलाक देकर अपने देश रवाना हो जाते हैं। मीडिया में ऐसे कई मामले उजागर हुए हैं।
2001 और 2011 की जनगणना में तलाक और पार्थक्य की स्थिति का संप्रदाय-वार तुलनात्मक विवरण भी टाइम्स ने दिया है, जो उक्त तालिका के कॉलम 5 में द्रष्टव्य है। इससे स्पष्ट है कि उक्त अवधि में सिक्खों में तलाक/अलगाव के मामले लगभग 108% बढ़ गये। इसके बाद सर्वाधिक वृद्धि जैनियों में (50%) हुई। मुस्लिमों में यह वृद्धि केवल 39% रही, जबकि हिन्दुओं में उनसे थोड़ी सी अधिक, यानी 40%
टाइम्स का कथन है कि सभी धर्मों और संप्रदायों की उन महिलाओं के लिए बेहतर कानूनों की ज़रूरत है, जिन्हें पति द्वारा छोड़ दिए जाने, अलग होने अथवा तलाक दिए जाने के बाद कोई निर्वाह-राशि नहीं मिलती। विवाह के बाद परित्यक्त अथवा तलाकशुदा हिन्दू महिलाओं की संख्या मुसलमान महिलाओं से पाँच गुना अधिक है।  और ऐसा इसलिए, क्योंकि देश में हिन्दुओं की कुल आबादी भी मुसलमान आबादी की लगभग पाँच गुना है।
इसे कहते हैं, बद से बदनाम बुरा।
तालिका
दंपतियों के अलग होने और तलाक की दर (प्रति 1000 शादियों पर)
धर्म/संप्रदाय
अलग होने की दर
तलाक की दर
योग
2001 से 2011 के बीच वृद्धि (%)
(1)
(2)
(3)
(4) (2+3)
(5)
हिन्दू
6.9
2.2
9.1
40
मुसलमान
6.7
4.9
11.6
39
इसाई
11.9
4.7
16.6
46
सिक्ख
4.1
2.2
6.3
108
बौद्ध
12.0
5.6
17.6
34
जैन
3.6
2.7
6.3
50
(स्रोत- 2001 और 2011 की जनगणना)

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