व्यंग्य
मैं यानी भौकाल
डॉ. रामवृक्ष सिंह
अपने यहाँ ब्रह्म की परिकल्पना अजर, अजन्मे, अमर,
अनूप, अदृश्य सत्ता के रूप में की गई है। ब्रह्म की कारयित्री शक्ति है माया, जिसके
सहयोग से ब्रह्म पूरी दुनिया का सृजन करता है और जिसके दम पर दुनिया के सारे
कार्य-व्यापार संचालित होते हैं। हमने माया को नया, बिलकुल आधुनिक नाम दिया है और
वह है भौकाल। व्यक्ति की वास्तविक सत्ता तो ब्रह्म के अंश वाली है। लेकिन वह दिखाई
पड़ता है अपने भौकाल के कारण। भौकाल नहीं तो कुछ नहीं। कम से कम समझता तो वह यही
है कि भौकाल है तो मैं हूँ।
यही कारण है कि जिससे मिलिए वह सबसे पहले अपना
भौकाल आगे बढ़ा देता है कि लो पहले मेरे भौकाल से मिल लो और उसके बाद भी जिन्दा बच
गये तो मुझसे मिलना। मैं इंजीनियर अमुक, मैं डॉक्टर तमुक, मैं विधायक का नाती, मैं
सांसद का भतीजा, मैं मुख्यमंत्री का पीए, मैं डीएम का चपरासी। तरह-तरह के लोग,
तरह-तरह के भौकाल। गोया भौकाल बिना किसी का कोई परिचय ही नहीं। प्रथम परिचय में ही
लोग अपना भौकाल सामने खड़ा कर देते हैं। अब यह आप पर निर्भर है कि आप उस भौकाल से
प्यार करें, उससे डरें या नफ़रत करें। बहरहाल, यह तो कोई उन्हीं से पूछे कि महोदय
आपके इस भौकाल का मैं क्या करूँ?
अमूमन भौकाल का एक ही आशय होता है- सामने वाले को
डराना। कुदरत ने इसी उद्देश्य से विभिन्न जीवों को विभिन्न प्रकार के भौकाल दिए
हैं, जैसे सांपों को फन दिया, हाथी को भारी-भरकम शरीर, भैंस को सींग और शेर,
कुत्ते आदि को नुकीले भयानक दाँत। आदमी को भगवान ने तिकड़मी बुद्धि दी, कि जा,
तुझे जैसे मन करे वैसे भौकाल बनाना।
यही कारण है कि हर आदमी अपने-अपने तरीके से अपना
भौकाल बनाता है। किसी के पास बड़ी डिग्री होती है तो किसी के पास बड़ा नाम। कोई
सदियों पुरानी अपनी जाति का ही भौकाल बनाता है और किसी का भौकाल उसके संपर्क होते
हैं। किसी का भौकाल उसकी नौकरी है, तो किसी का पैसा। दुनिया में बहुत कम लोग हैं
जिनके पास भौकाल नहीं है। जिन्दगी भर आदमी भौकाल ही सहेजता रह जाता है। सच कहें तो
भौकाल के बिना समाज के किसी प्रतिष्ठित आदमी की कल्पना ही नहीं की जा सकती। जिसके
पास ऊँचा सरकारी पद है, वह अपनी कार की नंबर प्लेट और मकान के पत्थर पर तुरन्त
छपवा लेता है- डीएम, विधायक, मंत्री, प्रधान, सचिव, प्रिंसिपल आदि-आदि। यह भौकाल
वर्तमान कालिक ही हो ऐसा नहीं है। भौकाल माने सार्वकालिक। एक बार भौकाल बनने के
बाद वह आजीवन रहता है। भौकाल न रहे, पर उसकी हनक रह जाती है। कई बार आदमी भौकाल के
बिलकुल नजदीक पहुंचते-पहुंचते रह जाता है। ज़रा-सा चूक जाता है। लेकिन उस चूक को
भी अपने तईं वह भौकाल ही गिनता है और उसकी घोषणा भी किसी न किसी रूप में करता रहता
है। ऐसे लोगों के मकान पर लगी तख्ती पर लिखा मिलता है- पूर्व प्रत्याशी- सभासद,
पूर्व प्रत्याशी-विधान सभा, पूर्व प्रधान-पति, पूर्व सरपंच आदि।
दुनिया का बहुत-सा कारोबार भौकाल-आधारित है। बड़ी
कार, बड़ा बंगला, बड़ी हवेली, बड़ा गेट, बडी मूँछें, बड़ी तोंद, बड़ी बारात, बड़ा
तोरण, बड़ा तम्बू, बड़ा बैण्ड, बड़ा धमाका, बड़ा लाव-लश्कर...। यानी बहुत-सी बड़ी
चीज़ों की ख्वाहिश केवल इसलिए होती है कि वे बड़ा भौकाल बनाती हैं। इस लिहाज़ से
आगरे का ताजमहल भी हमें एक भौकाल ही लगता है, वर्ना क्या तो शाहजहाँ और क्या
मुमताज। ऐसे अरबों जोड़े दुनिया में हुए हैं। लेकिन मुमताज को लगा कि मेरा शौहर
मेरी मोहब्बत की यादगार में कोई भौकाल क्यों न बनवाए! बस उसने फरमाइश कर दी कि मैं जब मर जाऊँ
तो मेरी कब्र पर एक भौकाल खड़ा करना, जो तुम्हारी और मेरी मुहब्बत की याद दिलाए। उसी
खानदान के आखिरी चिराग़ थे बहादुरशाह ज़फर। उनका भौकाल तो बहुत बड़ा था, लेकिन
औकात कुछ भी नहीं। अंग्रेजों ने पकड़कर रंगून भेज दिया तो बादशाह ने लिखा- दो गज़
जमीन भी न मिली कू-ए यार में। पता नहीं, बादशाह को अपने भौकाल की असलियत समझ आयी
या नहीं। पर हमें तो आती है। इसलिए हम हमेशा ज़मीन पर रहते हैं। न भौकाल बनाते
हैं, न किसी के भौकाल से डरते हैं।
हमें जब अपने ज्येष्ठ पुत्र के लिए वधू की तलाश
थी तो एक सज्जन ने हमसे अपनी भतीजी के लिए संपर्क किया। बातचीत के दूसरे ही वाक्य
में उन्होंने बताया कि हमारे भैया, यानी जिन सज्जन की बेटी के लिए बात हो रही है,
वे सत्तासीन पार्टी के जिला स्तर के पदाधिकारी हैं और दो-चार दिनों में अपने दल-बल
के साथ आपके निवास पर आकर आपको धन्य करेंगे। उन्होंने अपनी ओर से भौकाल बनाकर हमें
प्रभावित करना चाहा। लेकिन हम तो डर गये। और डर की नींव पर कोई रिश्ता कैसे बनेगा? लिहाज़ा हमने हाथ
जोड़ लिए कि महोदय हमें किसी राजनेता के घर से बहू नहीं लानी।
सड़क पर चलते हुए जिन गाड़ियों पर पद-सूचक,
कार्यालय-सूचक या व्यवसाय-सूचक इबारत लिखी होती है, उसका क्या प्रयोजन है? क्या यह सब लिखने
से गाड़ियों के इंजन अधिक माइलेज देते हैं या उनकी रफ्तार बढ़ जाती है? कुछ समय पहले तक
देश की बहुत-सी गाड़ियों पर अलग-अलग रंगों की बत्तियाँ लगी होती थीं। उसका क्या
प्रयोजन था? प्रयोजन साफ था- भौकाल। और भौकाल इसलिए नहीं कि आओ हमारी इज्जत करो,
हमें आदर दो, हमसे श्रद्धा करो। प्रयोजन था आम आदमी को डराना कि हटो सामने से, नहीं तो अभी कुचल
देंगे। कवितावली में कलि-काल का वर्णन करते हुए बाबा
तुलसीदास ने लिखा था कि कलियुग में हर कोई खुद को दूसरे से बड़ा समझेगा और सामने
होने पर आँखें तरेरते हुए, डाँटकर पूछेगा- हम तुम लगि कछु घाटि! क्या मैं तुझसे कमतर
हूँ? ना जी
ना, आप कमतर कहाँ हैं! आप तो बहुत बड़े भौकाल हैं!
कई बार मन होता है कि विभिन्न प्रकार के कार्यालयों
के नाम लिखी गाड़ी में बैठे लोगों से पूछें कि महोदय क्या इस गाड़ी में वह
कार्यालय चलता है, जिसका नाम आपने गाड़ी पर लिखवाया है? और यदि नहीं चलता है राह चलते आम आदमी को
इससे क्या फर्क पड़ता है कि उसके आगे, अगल-बगल या पीछे चल रही गाड़ी किस कार्यालय
के किस अधिकारी या चपरासी की है?
हम देश के कई शहरों में घूमे हैं। वहाँ बहुत-से
राजाओं, महाराजाओं के बनाए हुए भौकाल हैं। भौकाल के किसी कोने में कुछ कमरों में
राजा-महाराजा रहते हैं। शेष हिस्से की नुमाइश लगा दी गई है। टिकट खरीदो- भौकाल
देखो। उस टिकट के पैसे से राज-महाराजा अपने भौकाल का रख-रखाव करते हैं। हो सकता
है, उसी से उनकी दाल-रोटी भी चलती हो।
एक दिन सारा का सारा भौकाल धरा रह जाता है। ब्रह्म
का अंश धीरे से निकल लेता है। दो गज की काया जलकर खाक हो जाती है या कफन-दफन के
साथ मिट्टी में मिल जाती है। पानी के बुलबुले-सा इस जीव का अस्तित्व। किन्तु महा
ठगिनी माया के कुप्रभाववश यह छोटी-सी बात हम समझ नहीं पाते और खुद को समझ बैठते
हैं- भौकाल। मैं यानी भौकाल!
No comments:
Post a Comment