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लूट
सेल लगाकर कपड़े, साड़ियाँ, स्वेटर आदि बेचने वाली कंपनियाँ अपने ग्राहकों को लुभाने के लिए हिन्दी अखबारों में विज्ञापन देती हैं, जिनमें कहा गया होता है कि आइए और लूट ले जाइए, हजार रुपये वाली साड़ी डेढ़ सौ में, तीन हजार रुपये का कार्डिगन तीन सौ में आदि-आदि। लूटने के काम को आम तौर पर अपराध माना जाता है। कानून के विशेषज्ञ बेहतर बता सकते हैं कि लूट के लिए भारतीय दंड संहिता की कौन-सी धारा लगती है। लेकिन सेल के विज्ञापन में लूट शब्द का इस्तेमाल जिस प्रकार किया जाता है, उससे तो यही लगता है कि लूटना कोई बहुत ही अच्छा काम है।
कबीर-साहित्य में भी ठगिनिया लूटल हो कहा गया है। यानी वहाँ भी लूट शब्द का इस्तेमाल है। किन्तु उस समय लूट शब्द का अर्थ गर्हित था। बाद में लोगों ने कहा- राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट। यहाँ तक आते-आते लूट शब्द में सकारात्मकता जु़ड़ गई। ऐसी सकारात्मकता, जिसने लूटने के काम से अपराध का भाव हटा दिया।
सन चौरासी के सिख-विरोधी दंगे के समय हमने देखा कि लोग सिखों की दुकानें, गोदाम, घर आदि कैसे लूट रहे थे। उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं था कि जो माल वे ले जा रहे हैं, उसका क्या उपयोग करेंगे। उन्हें तो बस माल ले जाने से काम था।
लूटने की मानसिकता इसी को कहते हैं। जो हाथ आए, लिए चलो। इसका क्या करना है, बाद में सोचा और देखा जाएगा। सेल में भी अकसर यही होता है। खुद हम कई बार ऐसे-ऐसे कपड़े सेल से समेट लाए हैं, जिनका हमारे परिवार के किसी सदस्य के लिए कोई उपयोग नहीं था। बाद में वे कपड़े जान-पहचान वाले लोगों को टिकाने पड़े, ताकि वे उन्हें अपने बच्चों को पहना सकें।
भारतीय दंड संहिता में चाहे लूट के लिए धाराएँ मुकर्रर हों, किन्तु हमारे समाज का आम आदमी लूट में कोई बुराई नहीं देखता। इसीलिए, जब मौका मिलता है, लोग लूटना शुरू कर देते हैं। तेल का टैंकर पलट गया, तेल लूट लो। ट्रेन दुर्घटना हो गई, सवारियों का सामान लूट लो। किसी की पतंग कट गई, उसकी सद्दी और माँजा लूट लो। माल गाड़ी किसी गाँव के पास खड़ी हो गई और कोई डिब्बा खुला मिल गया, उसमें रखा सामान लूट लो। कोयला लदी गाड़ी कहीं गाँव-देहात में रुक गई, कोयला लूट लो। यही हमारा चरित्र है।
इस चरित्र को लेकर जब लोग किसी ऐसी जगह पहुँच जाते हैं, जहाँ लूटने-पीटने की अपार संभावनाएं हों तो वे वहाँ भी लूटने लगते हैं। चूंकि लूटने में हमारे समाज को कोई बुराई नहीं दिखती, इसलिए लूटने वाले लूटते रहते हैं और लुटने वाले लुटते रहते हैं। दुष्यन्त कुमार ने इसीलिए लिखा था-
दुकानदार तो रस्ते में लुट गए यारो
तमाशबीन दुकानें सजा के बैठ गये।
जिसे मौका मिलता है, जहाँ मौका मिलता है, लूटने में जुट जाता है। अपने देश का कोई नारा नहीं है। होगा तो भी इतना प्रचलित नहीं है कि सबकी जुबान पर चढ़ जाए। देश के गण्य-मान्य लोगों का आचरण देखकर तो हमें लगने लगा है कि अपने देश का नारा होना चाहिए- लूट लो।
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