Monday, 14 July 2014

'घोम' यानी 'होम' यानी भारतीय आर्यों के लिए 'आग' और अंग्रेज-आर्यों के लिए 'घर'

'घोम' यानी 'होम' यानी भारतीय आर्यों के लिए 'आग' और अंग्रेज-आर्यों के लिए  'घर'


प्राचीन काल में, जब आर्य लोग कैस्पियन सागर के आस-पास रहते थे, तब भी आग का उनके लिए विशेष महत्त्व था। वह महत्त्व आज भी कायम है। आग आज भी हिन्दू जीवन-पद्धति में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है, इतना महत्त्वपूर्ण कि उसे एक देवता -अग्नि देवता- का मुकाम हासिल है।
तो उस ज़माने में जब इन्सान के जीवन के लिए आग बेहद ज़रूरी थी, किन्तु उसे सरलता से सुलगाने या जलाने का कोई साधन उपलब्ध नहीं था, उस समय लोग घरों में आग जिला कर रखते थे। हममें से जिन लोगों का सम्बन्ध ठेठ गाँव से है वे बखूबी जानते हैं कि अपने घरों में किसी बोरसी, चूल्हे आदि में आग को राख के नीचे कैसे जिलाए रखा जाता था और ज़रूरत पड़ने पर उसी से चूल्हा जला लिया जाता था। उसी चूल्हे की लौ से लालटेन, ढिबरी, बीड़ी और चिलम तक जला ली जाती थी। माचिस को हिन्दी में 'दिया-सलाई' कहते थे और संक्षेप में 'सलाई'। शायद दिया-सलाई अंग्रेजी मैच-स्टिक का ही हिन्दी उल्था था। तेलुगु में माचिस को अग्गि-पेट्टि यानी आग जलानेवाली पेटिका कहते हैं। खैर... माचिस खरीदना और उसे तथा उसकी तीलियों को नमी से बचाकर जलने लायक बनाए रखना बहुत टेढ़ा काम था। जिन लोगों को कभी सीलन भरे घर में रहने और लाख रगड़ने के बाद भी माचिस न जला पाने का अनुभव प्राप्त है, वे इस बात को खूब अच्छी तरह समझते होंगे। ग़रीब हिन्दुस्तानियों के लिए माचिस एक विलास से कम वस्तु नहीं थी। तो आग कैसे जले? आग के लिए हमारे बचपन में एक कमरा मुकर्रर होता था, जिसमें मिट्टी के बरतन में राख के ढेर में आग छिपी रहती थी। अक्सर उस आग के ऊपर दूध औटाया जाता था। पूरे दिन औट-औट कर दूध लाल हो जाता था। फिर उसी दूध की दही जमती थी (कुछ लोग दही जमता था भी कह सकते हैं- जिसमें हमें कोई आपत्ति नहीं)।
आग वाला घर और दूध वाला घर (घर यानी कमरा या कोठरी)। अपने गाँवों में यह रिवाज़ आज भी है। वहाँ एक-एक मकान में आठ-दस बारह-चौदह, यानी इफरात कमरे होते हैं और आग जिलाए रखने के लिए एक कमरा अलग से निर्धारित करना कोई बड़ी बात नहीं होती।
तो आग वाला कमरा या घर- कैस्पियन सागर के आस-पास रहने वाले आर्यों के समय से हमारे जीवन का एक हिस्सा रहा। उस समय आग वाले घर के लिए प्रचलित शब्द था- घोम्।
जब आर्य कैस्पियन सागर से इधर उधर फैले और कालान्तर में उनमें से कुछ भारत पहुँचे और कुछ इंग्लैण्ड, तब घोम् शब्द किंचित ध्वनि-परिवर्तन के साथ अंग्रेजी और संस्कृत, दोनों भाषाओं में 'होम' बन गया। लेकिन अंग्रेजों ने 'होम' से घर वाला अर्थ ले लिया, जबकि भारत आये हिन्दुस्तानी आर्यों ने आग वाला।
आर्यों के जीवन में यज्ञ का बहुत महत्त्व था। यज्ञ और बलि, इन दोनों की अति हमें दिखाई देती है कर्म-काण्ड प्रधान हिन्दू जीवन में, जो बाद में बहुत हिंसक हो गई। जब आर्य घुमक्कड़ चरवाहे नहीं रहे और उन्हें कृषि कार्यों के लिए पशुओं, खासकर बैलों व दूध आदि के लिए गायों की ज़रूरत महसूस हुई तो उन्होंने हिंसा प्रधान यज्ञ-बहुल कर्मकाण्डी जीवन पद्धति को छोड़कर अहिंसा-प्रधान बौद्ध और जैन धर्म को अपना लिया।
बिना आग के यज्ञ नहीं हो सकता था। हम सब जानते हैं कि हवन कुण्ड में आम की लकड़ी जलाकर उसमें आहुतियाँ डालना और मन्तोच्चार करना ही यज्ञ का प्रमुख कार्य है। इसी को होम कहते हैं। किन्तु होम का प्राथमिक तत्व है आग। बिना आग के होम नहीं हो सकता। होम में हाथ जलाने का मुहावरा प्रचलित है। यानी किसी अच्छे उद्देश्य के लिए आग जला कर यज्ञ करना, और उसमें अपना नुकसान कर लेना।
इस प्रकार रही घोम् से होम तक की यह यात्रा। घोम् शब्द ही अंग्रेजी और  संस्कृत- हिन्दी, दोनों में होम् बना, किन्तु एक जगह घर के अर्थ में तो दूसरी जगह आग या हवन के अर्थ में।

Friday, 11 July 2014

बजट

बजट
प्राचीन फ्रेंच में चमड़े के एक विशेष प्रकार के थैले को bouge  कहते थे। फ्रेंच में यह शब्द लैटिन के bulga  से आया। उसका अर्थ भी चमड़े का थैला ही था। मूलतः इस शब्द का अर्थ था चमड़े का बटुआ या थैली, जिसमें आम तौर पर मुद्रा, धन आदि रखा जाता था। प्राचीन काल से ही सिक्कों को छोटी झोली, थैले, बटुए आदि में रखकर साथ ले जाने की परम्परा रही है। धनवान लोग उसी में अपने काम भर मुद्राएं लेकर निकलते और उसी में से निकाल-निकालकर खर्च करते थे। फ्रेंच के bouge का रूप-विस्तार bougette  में हुआ, जहाँ से विकसित होकर यह अंग्रेजी का budget बन गया। 18वीं सदी में खजाने की देखभाल करनेवाले अधिकारी जब अपने आय-व्यय का वार्षिक लेखा-जोखा प्रस्तुत करते तो कहा जाता था कि उन्होंने अपनी पोटली खोली या अपना थैला खोला। ध्यातव्य है कि अपने देश में कुछ-कुछ यही अर्थ-भंगिमा पिटारे या पिटारी के साथ भी जुड़ी है, जिसका संक्षिप्त रूप बटुआ होता है। 19 सदी में इस शब्द का अर्थ-विस्तार हुआ और यह सरकारी आय-व्यय की अर्थ-मर्यादा से बाहर निकलकर अन्य अर्थों में भी इस्तेमाल होने लगा।
आधुनिक अर्थ-व्यवस्था में, शासकीय सन्दर्भों में बजट का विशेष महत्त्व है। बजट में सरकारें यह निर्धारित और सार्वजनिक रूप से घोषित करती हैं कि अगले एक वर्ष के दौरान वे किन-किन मदों पर खर्च करेंगी और उन खर्चों की पूर्ति के लिए धन किन-किन स्रोतों से आएगा। आय-व्यय की विस्तृत जानकारी देते हुए वे आनुषंगिक रूप से अपनी प्राथमिकताओं को भी परिभाषित करती हैं। साथ ही देश की अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों की विकास-दर, सकल घरेलू आय, उत्पादन आदि का आकलन भी बजट का आनुषंगिक हिस्सा रहता है। व्यय की मदों व तत्सम्बन्धी धन की राशि का निर्धारण और आय-कर, उत्पाद-शुल्क, आयात-निर्यात व्यय, विभिन्न अधिभारों आदि का विस्तृत आकलन भी बजट में प्रस्तुत किया जाता है।
लोक-जीवन में बजट की कई अन्य अर्थ-छवियाँ भी हैं, जैसे यदि कोई मद या सेवा बेचने या उपलब्ध करानेवाला खरीददार से पूछे कि आपका बजट कितना है, तो इसका आशय यह जानना होता है कि आप इस पण्य अथवा सेवा के लिए कितना धन व्यय कर सकते हैं। इसी प्रकार यदि कोई कहे कि मेरा सारा बजट गड़बड़ा गया, तो आशय है कि एक ही मद पर इतना व्यय हो गया कि अब बाकी मदों के लिए पर्याप्त राशि नहीं बची।
बजट से कई बार दाम की अल्पता का भी बोध होता है. जैसे बजट होटल- यानी सस्ता होटल।
बजट का हिन्दी प्रतिशब्द है- आय-व्ययक, जो बिलकुल सटीक है, और बजट से अधिक अर्थपूर्ण है।

तो आइए कहें कि आज वित्त मंत्री श्री जेटली ने देश का आय-व्ययक प्रस्तुत किया।

Thursday, 3 July 2014

बीमा यानी बीम (फारसी) यानी डर

बीमा
बीमा शब्द फारसी के बीम से बना है, जिसका अर्थ होता है भय या डर। बीमा हम इसलिए कराते हैं कि बीमित वस्तु अथवा व्यक्ति के अंग, जीवन आदि को किसी प्रकार की आंशिक अथवा पूर्ण क्षति पहुँचे तो उस क्षति की कुछ हद तक भरपाई हो सके।
यदि हमें अपने किसी अंग, जीवन अथवा वस्तु, वाहन, सम्पत्ति आदि के क्षतिग्रस्त अथवा पूर्णतया नष्ट होने का भय न हो तो हम बीमा क्यों कराएँ! लिहाज़ा बीमा का केन्द्रीय तत्व है भय।
जीवन बीमा वाले कहते हैं, बीमा आग्रह की विषयवस्तु है- Insurance is a matter of solicitation.
हम कहते हैं बीमा डर को पार पाने का साधन है। जिसे जितना अधिक डर लगता है वह उतना बड़ा बीमा कराता है (बशर्ते वह बीमा का प्रीमियम भरने में सक्षम हो)।
धन्धेबाज और चालू लोग हर जगह अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं। बीमा-क्षेत्र में भी ऐसा होता है। पता चला कि अपने खाली गोदाम में आग लगा दी और लाखों रुपये का दावा ठोक दिया। गाड़ी को खुद ही जला दिया, सर्वेयर से मिलकर बीमा कंपनी से पूरा पैसा वसूललिया। और तो और कुछ लोग बीमे की राशि पाने के लिए अपने नजदीकी लोगों की दुर्घटना तक करा डालते हैं।
बहरहाल, यदि डर न हो तो कोई बीमा न कराए।
कुछ लोग सोचते हैं कि बीमा एक प्रकार का निवेश है। बीमा कंपनियाँ भी इस तरह की योजनाएं लाकर लोगों को आकर्षित करती हैं। सच्चाई यह है कि बीमा प्रीमियम पर जो भी राशि आपको मिलती है, वह साधारण मीयादी जमा (फिक्स्ड) डिपॉजिट से भी बहुत कम (ब्र्याज) दर पर मिलती है। इसलिए यह एक भ्रामक अवधारणा है कि बीमा कोई निवेश है।
मैं एक बीमा कंपनी के कार्यालय में गया तो देखता हूँ कि एक एएओ के पीछे ऊपर दीवार पर यमराज की तस्वीर टँगी है। यम का डर बड़े-बड़ों को सीधा कर देता है। मृत्यु न हो तो लोग सारे धर्म-कर्म छोड़ दें। ज्यादातर लोग सीधी राह न चलें और सारा समाज अनाचार का आगार बन जाए। 
किसी भले आदमी ने परलोग, स्वर्ग और बैकुण्ठ की परिकल्पना करके उसे पाने के लिए सदाचार और सन्मार्ग की अवधारणा को जन्म दिया। इसी प्राप्य की आकांक्षा में लोग कुमार्गी से सन्मार्गी बनने को प्रेरित हुए। 
यही हाल बीमा का है।
आदमी सोचता है यदि दुर्दैव से मेरी मृत्यु हो गई तो? तो मेरे घर-परिवार का खर्च कैसे चलेगा? इसलिए बीमा कंपनी वाले उसे पट्टी पढ़ाते हैं- यदि आपकी आय इतनी है तो कम से कम इतनी राशि का बीमा अवश्य कराएँ, ताकि दुर्भाग्य से आपके न रहने पर भी आपके परिवार को इतनी रकम तो हर महीने मिलती ही रहे।
बड़ी-बड़ी नामी गिरामी हस्तियाँ अपने शरीर के विभिन्न अंगों, यहाँ तक कि नाखून आदि का भी बीमा कराते हैं, क्योंकि उन्हें डर होता है कि यदि वह बेशकीमती अंग न रहा तो वे भी कौड़ी के तीन हो जाएँगे।
जीवन-बीमा की त्रासदी यह है कि उसकी रकम पाने के लिए व्यक्ति को मरना पड़ेगा। और किसी भी कीमत पर मरना कौन चाहता है!