Thursday, 28 August 2014

आजी यानी दादी (मराठी और भोजपुरी, दोनों में)
यह देखकर आश्चर्य होता है कि मराठी और भोजपुरी के बहुत से शब्दों का अर्थ एक ही है। ये दोनों भाषाएं जहाँ बोली जाती हैं, उन दोनों क्षेत्रों के बीच हजार से अधिक किलोमीटर की भौगोलिक दूरी है। फिर भी दोनों भाषाओं में कई शब्दों का एक ही अर्थ में प्रयोग किया जाना आश्चर्यजनक लगता है। उससे भी बड़ा आश्चर्य यह कि दोनों भोगोलिक क्षेत्रों के बीच कहीं भी उक्त शब्दों का प्रयोग उसी अर्थ में नहीं होता, जिस अर्थ में इन दो भाषाओं में होता है।
उदाहरण के लिए आजी शब्द को ही लें। मराठी और भोजपुरी (जो आजमगढ़, जौनपुर, बनारस, गाजीपुर, गोरखपुर, मऊ आदि जिलों में बोली जाती है), दोनों भाषाओं में आजी का अर्थ है दादी। 
चिपरी यानी उपला (मराठी और भोजपुरी, दोनों में)
गाय-भैंस के गोबर को पाथकर या तो लंबा आकार दिया जाता है या गोल। इन्हें धूप में सुखाकर रख लिया जाता है। गाँवों में अब भी इन्हें चूल्हे में जलाकर भोजन पकाया जाता है। कुछ लोग इन्हें ही कण्डा कहते हैं, किन्तु कण्डे संकल्पना कुछ अलग है। दरअसल मैदान में चरने गए मवेशी जो गोबर कर आते हैं, वह भ्री प्राकृतिक रूप से सूखकर जलाने के काम आता है। इसी प्राकृतिक रूप से सूखे गोबर के पिण्ड को कण्डा कहते हैं। मान्यता है कि ऐसे कण्डों को बीनकर लाया जाए और उन्हें जलाकर उस आग पर आयुर्वेदिक दवाइयाँ, अवलेह आदि तैयार किए जाएं तो वे बहुत गुणकारी होते हैं। खैर...
जो गोबर गोल-गोल, यानी रोटी की तरह गोल, किन्तु कुछ मोटे आकार में पाथकर सुखाया जाता है, उसे भोजपुरी में चिपरी कहते हैं। मजे की बात यह है कि इसे मराठी में भी चिपरी ही कहते हैं। हिन्दी में इन्हें उपले कहते हैं।
आवा यानी आओ (मराठी और भोजपुरी दोनों में)
भोजपुरी में किसी को पास बुलाना होता है, तो कहते हैं- आवा। मराठी में भी इस शब्द का यही अर्थ है।
बसा यानी बैठो (मराठी और भोजपुरी, दोनों में)
भोजपुरी और मराठी (साथ ही गुजराती व बांगला में भी-किंचित ध्वनि परिवर्तन के साथ) बसा का अर्थ है बैठो।
भोजपुरी और मराठी, दोनों भाषाओं के ऐसे बहुत से समानार्थी शब्द होंगे। इससे इन दोनों ही नहीं, बल्कि प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में पारस्परिक एकात्मकता का पता चलत है।

Sunday, 3 August 2014

कड़ाही और कढ़ाई का अन्तर

कड़ाही और कढ़ाई का अन्तर
डॉ. रामवृक्ष सिंह
कड़ाही एक गोलाकार बर्तन को कहते हैं, जिसे चूल्हे पर चढ़ाने और उतारने के लिए दोनों तरफ ऊपर की ओर कड़े लगे रहते हैं। कई कड़ाहियों में कुण्डों या कड़ों की जगह एक हत्था या हैण्डल लगा होता है। कड़ाही को अंग्रेजी में पैन कहते हैं। अर्ध-गोलाकार होना कड़ाही की खासियत है। इसीलिए कई भौगोलिक आकृतियों को भी कड़ाही के आकार की संरचना कहा जाता है, जैसे किसी निष्क्रिय ज्वाला-मुखी का क्रेटर।
कड़ाहियाँ पारंपरिक रूप से लोहे की होती थीं। कहीं-कहीं ढलवाँ लोहे और मिट्टी की कड़ाहियाँ भी होती थीं, जो गिरने पर टूट जाया करती थीं। इधर अल्युमीनियम, स्टील और मिश्र-धातुओं की कड़ाहियाँ भी बनने लगी हैं। कड़ाही का ही पुल्लिंगी है कड़ाह।
गाँवों में गन्ने का रस उबालकर धीरे-धीरे गुड़ बनाने की प्रक्रिया जिस बड़े पात्र में संपन्न की जाती है, उसे कड़ाह कहते हैं। आयुर्वेदिक कारखानों में भी कड़ाह होते हैं, जिनमें अवलेह तैयार किए जाते हैं।
पूर्वांचल के गाँवों में देवी-देवताओं के थान (स्थान) पर कड़ाही चढ़ाने की परम्परा रही है। लोग अपनी मन्नतें पूरी होने अथवा काली माई, डीह बाबा, बनसत्ती माई आदि को प्रसन्न करने के लिए कण्डे, जलावन, आटा, तेल आदि लेकर वहाँ पहुँचते हैं और वहीं पर पूड़ी काढ़कर, हलवा बनाकर देवी-देवता को चढ़ाते हैं। इसी को धार्मिक सन्दर्भों में कड़ाही चढ़ाना कहा जाता है।
इसके विपरीत है कढ़ाई। कपड़ों पर सुई धागे की मदद से विभिन्न प्रकार की आकृतियाँ उकेरने की कला को कहते हैं कढ़ाई अथवा कशीदाकारी। लखनऊ में नवाब वाज़िद अली शाह के ज़माने में जो कला खास तौर से परवान चढ़ी थी, वह थी चिकनकारी की कला। चिकनकारी एक प्रकार की कढ़ाई है जो कुर्तों, कुर्तियों, दुपट्टों आदि पर की जाती है। इसी प्रकार गुजरात के कच्छ में घाघरों और चोलियों पर बड़ी ही कलात्मक कढ़ाई की जाती है। राजस्थान में भी यह काम खूब होता है। महिलाएँ अपने खाली समय में कढ़ाई के माध्यम से अपनी रचनात्मकता और कलात्मक हुनर को आकार देती हैं। गुजरात में तो  कई चोलियाँ ऐसी कढ़ाई वाली होती हैं, जिनके दाम पच्चीस से पचास हजार रुपये तक हो सकते हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी ये चोलियाँ महिलाएं एक दूसरे को उपहार में देती हैं।
कढ़ाई के बीच-बीच में शीशे, सलमे-सितारे आदि जड़कर ऐप्लीक वर्क का काम किया जाता है। इससे कपड़ों में और भी निखार आ जाता है। ज़रूरी नहीं कि ये कपड़े केवल पहनने के काम आएँ। कहीं-कहीं ऐसे काम से युक्त चादरों, मेजपोशों और वॉल हैंगिंग्स का भी खूब चलन है।

तो ये था कड़ाही और कढ़ाई का अन्तर।

Saturday, 2 August 2014

गूँथना और गूँधना

गूँथना और गूँधना
डॉ. रामवृक्ष सिंह
3 अगस्त 2014 के दैनिक अमर उजाला (लखनऊ संस्करण) में एक खबर छपी है- आटा गूंथ रहा पीयूष...। यह खबर अपनी ही पत्नी की हत्या करने के आरोप में कानपुर के एक कारागार में बंद एक विचाराधीन कैदी के बारे में है।
खबर तो आम है, लेकिन इसके शीर्षक में प्रयुक्त गूँथना धातु के त्रुटिपूर्ण प्रयोग की ओर पाठकों का ध्यान दिलाना चाहता हूँ। दरअसल गूँथना और गूँधना, दो अलग-अलग अर्थ देने वाली क्रियाएं हैं। फूलों को जब किसी सुई-धागे की मदद से आपस में पिरोकर माला बनाई जाती है तो उस क्रिया को गूँथना कहते हैं। फूलों की माला गूँथी जाती है। इसी प्रकार सिर के बालों को जब चोटी के रूप में आकार दिया जाता है तो चोटी गूँथना कहलाता है।
जब दो या अधिक व्यक्ति आपस में कुश्ती लड़ते हैं, या शारीरिक रूप से एक-दूसरे को पकड़कर लड़ने लगते हैं तो लोग कहते हैं कि वे गुत्थम-गुत्था हो गए। यहाँ भी आपस में जुड़ने का भाव है।
इसके विपरीत सूखे पिसान या आटे को जब पानी, तेल आदि द्रव मिलाकर, साना जाता है और लोई तैयार लायक बनाया जाता है(जिसे अंग्रेजी में डो बनाना कहते हैं), तब वह प्रक्रिया गूँधना कहलाती है। कबीर ने इसे ही रूँधना (कदाचित रौंदना) कहा है। कहते हैं कि पाव बनाने वाले बड़े कारखानों में पाव रोटी बनाने के लिए शायद आटे को स्वच्छ पैरों से रौंद-रौंदकर गूँधा जाता था, इसीलिए पाव रोटी को यह नाम मिला। ईंट के भट्टों पर ईट बनानेवाले कामगार देर शाम को मिट्टी तोड़कर उसे पैरों से सान या गूँध लेते हैं, फिर सबेरे उसी गूँधी हुई मिट्टी से ईंटें पाथते हैं।

तो गूँथने और गूँधने में यह अन्तर है।