Sunday, 3 August 2014

कड़ाही और कढ़ाई का अन्तर

कड़ाही और कढ़ाई का अन्तर
डॉ. रामवृक्ष सिंह
कड़ाही एक गोलाकार बर्तन को कहते हैं, जिसे चूल्हे पर चढ़ाने और उतारने के लिए दोनों तरफ ऊपर की ओर कड़े लगे रहते हैं। कई कड़ाहियों में कुण्डों या कड़ों की जगह एक हत्था या हैण्डल लगा होता है। कड़ाही को अंग्रेजी में पैन कहते हैं। अर्ध-गोलाकार होना कड़ाही की खासियत है। इसीलिए कई भौगोलिक आकृतियों को भी कड़ाही के आकार की संरचना कहा जाता है, जैसे किसी निष्क्रिय ज्वाला-मुखी का क्रेटर।
कड़ाहियाँ पारंपरिक रूप से लोहे की होती थीं। कहीं-कहीं ढलवाँ लोहे और मिट्टी की कड़ाहियाँ भी होती थीं, जो गिरने पर टूट जाया करती थीं। इधर अल्युमीनियम, स्टील और मिश्र-धातुओं की कड़ाहियाँ भी बनने लगी हैं। कड़ाही का ही पुल्लिंगी है कड़ाह।
गाँवों में गन्ने का रस उबालकर धीरे-धीरे गुड़ बनाने की प्रक्रिया जिस बड़े पात्र में संपन्न की जाती है, उसे कड़ाह कहते हैं। आयुर्वेदिक कारखानों में भी कड़ाह होते हैं, जिनमें अवलेह तैयार किए जाते हैं।
पूर्वांचल के गाँवों में देवी-देवताओं के थान (स्थान) पर कड़ाही चढ़ाने की परम्परा रही है। लोग अपनी मन्नतें पूरी होने अथवा काली माई, डीह बाबा, बनसत्ती माई आदि को प्रसन्न करने के लिए कण्डे, जलावन, आटा, तेल आदि लेकर वहाँ पहुँचते हैं और वहीं पर पूड़ी काढ़कर, हलवा बनाकर देवी-देवता को चढ़ाते हैं। इसी को धार्मिक सन्दर्भों में कड़ाही चढ़ाना कहा जाता है।
इसके विपरीत है कढ़ाई। कपड़ों पर सुई धागे की मदद से विभिन्न प्रकार की आकृतियाँ उकेरने की कला को कहते हैं कढ़ाई अथवा कशीदाकारी। लखनऊ में नवाब वाज़िद अली शाह के ज़माने में जो कला खास तौर से परवान चढ़ी थी, वह थी चिकनकारी की कला। चिकनकारी एक प्रकार की कढ़ाई है जो कुर्तों, कुर्तियों, दुपट्टों आदि पर की जाती है। इसी प्रकार गुजरात के कच्छ में घाघरों और चोलियों पर बड़ी ही कलात्मक कढ़ाई की जाती है। राजस्थान में भी यह काम खूब होता है। महिलाएँ अपने खाली समय में कढ़ाई के माध्यम से अपनी रचनात्मकता और कलात्मक हुनर को आकार देती हैं। गुजरात में तो  कई चोलियाँ ऐसी कढ़ाई वाली होती हैं, जिनके दाम पच्चीस से पचास हजार रुपये तक हो सकते हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी ये चोलियाँ महिलाएं एक दूसरे को उपहार में देती हैं।
कढ़ाई के बीच-बीच में शीशे, सलमे-सितारे आदि जड़कर ऐप्लीक वर्क का काम किया जाता है। इससे कपड़ों में और भी निखार आ जाता है। ज़रूरी नहीं कि ये कपड़े केवल पहनने के काम आएँ। कहीं-कहीं ऐसे काम से युक्त चादरों, मेजपोशों और वॉल हैंगिंग्स का भी खूब चलन है।

तो ये था कड़ाही और कढ़ाई का अन्तर।

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