गूँथना और गूँधना
डॉ. रामवृक्ष सिंह
3 अगस्त 2014 के
दैनिक अमर उजाला (लखनऊ संस्करण) में एक खबर छपी है- “आटा गूंथ रहा पीयूष...”। यह खबर अपनी ही पत्नी की हत्या करने के आरोप में
कानपुर के एक कारागार में बंद एक विचाराधीन कैदी के बारे में है।
खबर तो आम है, लेकिन इसके शीर्षक में प्रयुक्त गूँथना धातु के त्रुटिपूर्ण
प्रयोग की ओर पाठकों का ध्यान दिलाना चाहता हूँ। दरअसल गूँथना और गूँधना, दो
अलग-अलग अर्थ देने वाली क्रियाएं हैं। फूलों को जब किसी सुई-धागे की मदद से आपस
में पिरोकर माला बनाई जाती है तो उस क्रिया को गूँथना कहते हैं। फूलों की माला
गूँथी जाती है। इसी प्रकार सिर के बालों को जब चोटी के रूप में आकार दिया जाता है तो
चोटी गूँथना कहलाता है।
जब दो या अधिक व्यक्ति आपस में कुश्ती लड़ते हैं, या शारीरिक रूप से एक-दूसरे
को पकड़कर लड़ने लगते हैं तो लोग कहते हैं कि वे गुत्थम-गुत्था हो गए। यहाँ भी आपस
में जुड़ने का भाव है।
इसके विपरीत सूखे पिसान या आटे को जब पानी, तेल आदि द्रव मिलाकर, साना जाता है
और लोई तैयार लायक बनाया जाता है(जिसे अंग्रेजी में डो बनाना कहते हैं), तब वह प्रक्रिया
गूँधना कहलाती है। कबीर ने इसे ही रूँधना (कदाचित रौंदना) कहा है। कहते हैं कि पाव
बनाने वाले बड़े कारखानों में पाव रोटी बनाने के लिए शायद आटे को स्वच्छ पैरों से
रौंद-रौंदकर गूँधा जाता था, इसीलिए पाव रोटी को यह नाम मिला। ईंट के भट्टों पर ईट
बनानेवाले कामगार देर शाम को मिट्टी तोड़कर उसे पैरों से सान या गूँध लेते हैं,
फिर सबेरे उसी गूँधी हुई मिट्टी से ईंटें पाथते हैं।
तो
गूँथने और गूँधने में यह अन्तर है।
No comments:
Post a Comment