Saturday, 21 February 2015

पूछ और पूँछ का अंतर समझें



पूछ और  पूँछ
जिस इलाके में मैं रहता हूँ,  वहाँ और उससे पूरब में, यानी पूर्वी उत्तर प्रदेश में कई लोग पूछ और पूँछ को पर्यायवाची शब्दों के रूप में इस्तेमाल करते हैं। हिन्दी के ज्ञाताओं को तो इन दोनों शब्दों का अन्तर मालूम है, किन्तु जिन्हें नहीं मालूम, उनकी जानकारी के लिए बता दें कि पूछ(ना) का अर्थ होता है जिज्ञासा करना, मालूम करना, प्रश्न करके किसी वस्तु, स्थिति, संकल्पना, परिस्थिति आदि के बारे में और जानना। मसलन यदि कोई कहे कि अमुक व्यक्ति आपके बारे में पूछ रहा था, तो अर्थ होगा कि वह आपके विषय में जानकारी ले रहा था। शिक्षक अपने शिष्यों से कहते हैं- सवाल पूछना हो तो पूछ लो, यानी अपनी शंका के समाधान के लिए कुछ और जानना चाहते तो जान लो। अंग्रेजी में इन्क्वायरी शब्द का अर्थ होता है पूछ(ताछ)। पूछ अपने-आप में संपूर्ण शब्द है, जबकि पूछ-ताछ द्विरुक्ति। पाठकों को ज्ञात होगा कि द्विरुक्ति ऐसे शब्द-युग्म को कहते हैं, जिसमें प्रथम शब्द तो अर्थवान होता है, किन्तु उसका अनुगामी दूसरा शब्द प्रायः निरर्थक। पूछ-ताछ द्विरुक्ति है, किन्तु पूछ-परख द्विरुक्ति नहीं है, क्योंकि परख शब्द का अपना स्वतंत्र अर्थ भी है, इसके विपरीत ताछ का कोई अर्थ नहीं है, और इस नाते उसे शब्द कहना भी संभवतः ठीक न हो।
पूछ का एक अर्थ 'कद्र' भी होता है। उदाहरण के लिए जब हम कहते हैं कि रिटायर हो चुके क्रिकेट खिलाड़ियों की भी अपने देश में बड़ी पूछ है, तो इसका अर्थ यही है कि उन खिलाड़ियों की बहुत कद्र है।
अब ज़रा पूँछ को लें। पूँछ का अर्थ है कशेरुकी जानवरों की रीढ़ की हड्डी का वह आखिरी हिस्सा जो उनके पिछले जानुओं (जंघाओं) के बाद होता है, और प्रायः जिसके नीचे मादा जानवरों के जननांग, तथा सभी पूँछधारी जानवरी की गुदा आदि होते हैं। इसीलिए कहावत प्रसिद्ध है कि जिसकी पूँछ उठाओ, वही मादा निकलता है। पूँछ उठाकर दौड़ने में आह्लाद का भाव है। गायों के बछड़े-बाछियाँ अपनी माँ को देखते ही उसकी ओर या उसके पीछे पूँछ उठाकर दौड़ते हैं। पूँछ दबाकर भागने में भय की व्यंजना है। कुत्ते जब डर जाते हैं तो पूँछ दबाकर भाग खड़े होते हैं। हिन्दी में दुम दबाकर भागने का मुहावरा खूब प्रचलित है। पूँछ को कुछ लोग पोंछ भी कहते हैं, ठीक वैसे ही जैसे मूँछ को मोंछ। लेकिन पूछ और पूँछ में बुनियादी फर्क है। इसे हर हिन्दी-भाषी को समझना चाहिए।

Sunday, 15 February 2015

'वायदा' और 'वादा' पर्याय होते हैं क्या?



'वायदा' और 'वादा' पर्याय होते हैं क्या?
                                                     डॉ. रामवृक्ष सिंह

दिल्ली में अभी-अभी 'आप' की सरकार बनी है। 'आप' ने जनता से बहुत सारे वादे किए हैं। वादे यानी प्रॉमिसेज। हमें हिन्दी का पुराना गीत याद आ रहा है- जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा, यानी यू हैव टु फुलफिल द प्रोमिसेज यू मेड। रॉबर्ट्स फ्रॉस्ट ने कहा- द वुड्स आर लवली, डार्क एंड डीप, बट आय हैव प्रॉमिसेज टु कीप। एंड माइल्स टु गो बिफोर आय स्लीप। इसका अनुवाद करना हो तो हम कुछ इन शब्दों में करेंगे-
गहन-लुभावन हैं वन-कान्तार। किन्तु मुझे निभाने हैं वादे बेशुमार। चलते जाना है मीलों-मील..लगातार। इससे पहले कि बैठूं मैं थक-हार। 
इससे इतना तो स्पष्ट है कि प्रॉमिस का हिन्दी प्रतिशब्द है वादा। लेकिन जिसे देखिए, वह 'वादा' को 'वायदा' कह रहा है। यहाँ मुख-सुख यानी कम बोलकर अधिक काम निकालने का सिद्धान्त काम करता नहीं दिख रहा। यदि प्रचलन को ही नियम मान लें, तो वायदा और वादा पर्यायवाची की तरह इस्तेमाल हो सकते हैं, किन्तु सच कहें तो ऐसा होना नहीं चाहिए।
तो सवाल उठता है कि यदि प्रॉमिस का प्रतिशब्द 'वादा' है, तो फिर यह 'वायदा' क्या बला है? 'वायदा'  का अर्थ है 'अगाऊ' यानी 'ऐडवान्स' 'भविष्य में होनेवाला' या 'फॉर्वर्ड'। व्यवसाय-क्षेत्र और  शेयर-बाज़ारों में कहते हैं 'फॉर्वर्ड ट्रेडिंग' यानी रुझान देखकर, केवल अनुमान के आधार पर ट्रेडिंग या खरीद-फरोख्त। इस लिहाज़ से वायदा शब्द कहीं ऐडवान्स का पर्याय है, तो कहीं फॉर्वर्ड का।
इसका अर्थ यह हुआ कि हमें प्रॉमिस के लिए वादा शब्द और ऐडवान्स के लिए वायदा शब्द का इस्तेमाल करना चाहिए। Promise- वादा, और Future/Forward- वायदा।

Thursday, 5 February 2015

गड़ना और गढ़ना

गड़ना और गढ़ना किसी बड़ी वस्तु की सतह में छेद, गड्ढा आदि बनाकर, उससे अपेक्षाकृत छोटी वस्तु का उसमें धँस जाना गड़ना कहलाता है। गड़ने की कई दशाएं हो सकती हैं। यानी गड़ी हुई वस्तु का एक सिरा दृश्यमान भी हो सकता है और अदृश्य भी। जैसे सीताजी के पाँव में काँटा गड़ गया। हो सकता है काँटे का ऊपर वाला हिस्सा दिख रहा हो, जिसे कुरेदकर रामजी ने काँटा काढ़ दिया। हो सकता है काँटा सीताजी के पाँव की चमड़ी के अंदर छिप गया रहा हो और उसे बाहर निकालने के लिए रामजी को बबूल या किसी अन्य नुकीले काँटे की नोक से कुरेदना पडा हो। कई बार लोग किसी हवेली, मकान, महल, किले, कोट आदि के फर्श में, मोटी दीवार आदि में खजाना गड़ा होने की किंवदंतियाँ कहते-सुनते पाए जाते हैं। किसी-किसी को नींव की खुदाई करते समय गड़ा हुआ धन हाथ लगने की बातें भी सुनने में आती हैं। कुछ लोगों में मुर्दे गाड़े यानी दफ्न किए जाते हैं। भाव है छिपाने का, दृष्टि से ओझल रखने का। इसी अर्थ-साम्य के आधार पर गड़े हुए धन को दफ़ीना भी कहा जाता है। जब शरीर के किसी हिस्से में कोई चीज़ गड़ती है तो पीड़ा होती है। इस प्रकार उसमें पीड़ा का भाव भी जुड़ जाता है। हम प्रायः सुनते हैं कि आँख में कुछ गड़ रहा है। यानी आँख में कोई बाहरी तत्व पड़ गया है जो पीड़ा दे रहा है। किसी आसन पर बैठें या शय्या पर सोएं और उसकी सतह मुलायम न होकर कठोर तथा पीड़ाकारी हो तो हम कहते हैं कि आसन गड़ रहा है, यानी चुभ रहा है। बिस्तर गड़ रहा था, यानी मुलायम नहीं था। गढ़ने का अर्थ बिलकुल अलग है। पत्थर के किसी टुकड़े, लकड़ी आदि को किसी तेज धार वाले औज़ार (जैसे रुखानी, छेनी, चिज़ल) या खराद आदि उपकरण से खुरच कर या रगड़कर अपने इच्छित स्वरूप में लाने की प्रक्रिया को गढ़ना कहते हैं। बचपन में हम शलाका यानी पेंसिल को पत्ती यानी ब्लेड या तेज धार वाले चाकू से गढ़ते थे, ताकि उसकी नोक बन जाए और लिखने के काम आ सके। बाँस, सरकंडे और नरकट की कलम भी गढ़ी जाती थी। बढ़ई भी लकड़ी को काटकर, गढ़कर ही फर्नीचर बनाता है। मूर्तिकार, शिल्पकार आदि अपने-अपने शिल्प के माध्यम को गढ़कर सुन्दर कलाकृतियाँ बनाते हैं। गढ़ाई के काम में सबसे प्रमुख बात यह है कि पहले वस्तु स्थूल रूप में होती है। फिर किसी धारदार उपकरण से उसकी एक-एक परत को छीला जाता है, छीलने के बाद उसकी और पतली परतें उतारी जाती हैं। इसे रंदा लगाना कहते हैं, अंग्रेजी में ग्राइंडिंग। फिर घिसाई की जाती है, पहले मोटी-मोटी और फिर बारीक। अंत में जो घिसाई होती है, वह घिसाई कम और पॉलिश कराई अधिक होती है। अंतिम घिसाई से वस्तु में चिकनापन और कई बार चमक भी आ जाती है। इस पूरी प्रक्रिया को कटिंग और पॉलिशिंग कहते हैं। इसीलिए पेंसिल छीलने को कटिंग तथा पेंसिल-छीलक उपकरण को कटर (या शार्पनर) कहते हैं। जब कोई किसी काम को खूब अच्छे से संभल-संभलकर, धीरे-धीरे, ध्यानपूर्वक करता है तो लोग कहते हैं कि वह गढ़ाई कर रहा है। जैसे कोई बच्चा जब एक-एक अक्षर को सज़ा-सजाकर लिखता है तो हम कहते हैं कि गढ़-गढ़कर लिख रहा है। कुम्हार जब चाक पर कच्ची मिट्टी के लोंदे से बर्तन बनाता है, तो हम कहते हैं कि वह बर्तन गढ़ रहा है। गढ़ने में सुन्दरता का भाव निहित है। किसी की देहयष्टि बहुत सुन्दर हो तो हम कहते हैं कि उसकी गढ़न बहुत सुन्दर है। उसे भगवान ने फुर्सत के क्षणों में अपने हाथ से गढ़ा है। गढ़ने के काम में गढ़नेवाले की अपनी कल्पना-शक्ति का भी बहुत हाथ रहता है। स्थूल प्रस्तर-खंड अथवा काष्ठ अथवा मृत्तिका में खुद की कोई कलात्मक सुन्दरता नहीं होती। अलबत्ता उसमें सुन्दर बनने, सुन्दर स्वरूप धारण करने की संभावनाएं ज़रूर विद्यमान रहती हैं। जब कल्पना-प्रवण कलाकार अपने सिद्ध हाथों से उसपर काम करना शुरू करता है तो स्थूल माध्यम भी सजीव हो उठता है, उसमें अन्तर्निहित सुन्दरता आकार लेने लगती है। यही स्थिति बातों यानी प्रवाद की होती है। कई बार वास्तव में कोई ऐसा प्रकरण, घटना या बात नहीं होती, जिसका कथन किया जा सके, किन्तु बातें बनाने और उन्हें प्रचारित-प्रसारित करने में महारत प्राप्त लोग अपनी उर्वर कल्पना-शक्ति से उनमें इतने आयाम जोड़ देते हैं कि अच्छा-खासा बतंगड़ बन जाता है। इसे कहते हैं कहानी गढ़ना। यह भी एक प्रकार की कला है और हर किसी के वश की बात नहीं। पिशुनता भी कला है, हमारे नारद मुनि उसके पुरोधा रहे हैं। तो यह है गड़ना और गढ़ना का भेद।

Wednesday, 4 February 2015

जूठा और झूठा

झूठा और जूठा
डॉ. आर.वी. सिंह
कुछ लोग झूठा और जूठा के प्रयोग में बहुत-ही घालमेल कर जाते हैं। सच कहें तो झूठा शब्द के अर्थ-बोध में तो कोई कठिनाई नहीं है। इसका अर्थ है असत्य, यानी जो यथातथ्य न होकर, ग़लत हो। जो सही न हो। झूठा विशेषण है जबकि झूठ भाववाचक संज्ञा। जैसे यह सरासर झूठ है- इस वाक्य में झूठ संज्ञा है। वह बहुत ही झूठा आदमी है- इस वाक्य में झूठा आदमी का विशेषण है। एक झूठ को छिपाने के लिए सौ झूठ बोलने पड़ते हैं। यह कहावत सभी को मालूम है।
जूठा का व्यापक अर्थ है, जो इस्तेमाल में लाया जा चुका हो। इसका बिलकुल सटीक और संकीर्ण अर्थ है जो मुँह से खाने या पीने के बाद शेष रह गया हो। यानी जो मुँह के रास्ते पेट में उतर गया उसके बाद मुँह से छूने के बाद बचा खाने या पीने का पदार्थ जो हाथ में या बर्तन में या कहीं और रह गया हो, जैसे सेब को दाँत से काटने के बाद खाने से बच गया हिस्सा, या दूध से भरे गिलास से एक घूँट पी लेने के बाद उसमें जो बाकी दूध बच गया हो।
शबरी ने रामजी को बेर खिलाए, लेकिन हर बेर को पहले खुद थोड़ा-थोड़ा खाकर देखा कि मीठा है या नहीं। इस प्रकार उसने बेर जूठे कर दिए। यदि हम बड़े बर्तन में चम्मच डालकर खाने का पदार्थ निकाल लें, चम्मच को मुँह में डालकर सामग्री खाएँ तो चम्मच जूठा हो गया। अब हम उसी चम्मच को वापस खाद्य-सामग्री वाले बर्तन में डाल देंगे तो पूरी खाद्य-सामग्री जूठी हो जाएगी। ऐसी सामग्री जिस-जिस खाद्य-सामग्री में मिलेगी, वह समस्त सामग्री जूठी होती चली जाएगी। जूठेपन का भाव संक्रमणशील होता है। कुछ घरों में महिलाएं अपने पकाए भोजन को खुद चखकर नहीं देखतीं, बल्कि किसी छोटी कटोरी में एक-दो चम्मच निकालकर घर के किसी दूसरे सदस्य को दे देती हैं कि ज़रा चखकर बताओ कि सब (यानी नमक, मसाला, मीठा) ठीक है या नहीं। और यदि कुछ कमी-बेशी हो तो वह ठीक कर ली जाए। यदि गृहिणी ऐसा न करे और खुद ही चखकर देख ले तो यह माना जाता है कि उसने रसोई जूठी कर दी। कुछ परंपरावादी भारतीय घरों में ऐसा होता है, सबमें होता हो यह ज़रूरी नहीं। इसके विपरीत भी होता है। यानी महिलाएं जो कड़छी कड़ाही में डालकर भोज्य-पदार्थ को छौंक-बघार रही होती हैं, उसी से उँगली छुआ कर व्यंजन का कुछ हिस्सा उठाती हैं, चखती हैं और कड़छी को वापस कड़ाही में डाल देती है। और ज़ाहिर है कि यह प्रक्रिया कई बार, उसी उँगली और उसी कड़छी से दुहराई जाती है। तब भी रसोई के जूठा होने का कोई बोध उनके मन में नहीं जगता।
जिन इलाकों में पेयजल की कमी होती है, वहाँ तो अकसर और पेयजल की प्रचुरता वाले इलाकों में भी कभी-कभी लोग बोतल या जग को मुँह से लगाए बिना, आसमान की ओर थोड़ा ऊँचा उठाकर, मुँह आसमान की ओर खोलकर गटर-गटर पानी पी जाते हैं। इससे गिलास, लोटा आदि जूठा नहीं होता, यानी जूठा बर्तन माँजने के लिए पानी बहाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। लेकिन परंपरावादी हिन्दू परिवारों के लोग तो यही कहेंगे कि ऐसे पीने पर भी पेय पदार्थ जूठा हो गया, क्योंकि इस मामले में पेय पदार्थ का मुँह से सीधा सम्पर्क स्थापित हुआ।
बात चाहे जो हो, झूठा और जूठा में फर्क है। उर्दू परंपरा के लोग झूठा को झूटा भी कहते-लिखते हैं। दिल्ली के बच्चे झूला झूलते हैं या किसी सवारी पर बैठते हैं तो उसमें जो हिचकोले उनको मिलते हैं, उनके झूटा कहते हैं। यदि कोई बच्चा पहले से झूले पर बैठा झूल रहा हो और दूसरा बच्चा उसके पास झूला झूलने की गरज से जाए तो वह कहेगा कि मुझे भी कुछ झूटे दे दे, यानी मुझे भी झूले पर अपने साथ बिठा ले और दो-चार फेरा झूल लेने दे। तो झूटा और झूठा में भी अन्तर है।
न झूठा, न जूठा- हमें तो कुछ भी अच्छा नहीं लगता। मजे की बात है कि झूठा का विलोमार्थी यदि सच्चा है तो जूठे का विलोमार्थी है सुच्चा। अपने भोजपुरी इलाकों में सुच्चा को फरीच भी कहते हैं- ई एकदम फरीच हव, एके पूजा बदे धय दा। ई लइका जुठार देहले बाटें, एके लइकन के खियाय दा, नाहीं गोरुन के डार दा। साफ, स्वच्छ, अच्छा आदि शब्द भी जूठा के विलोमार्थी के रूप में इस्तेमाल किए जाते हैं, जैसे यह साफ है, इसे किसी और को दे दीजिए।
अपने यहाँ एक भजन है, जिसमें कहा गया है कि भगवान को दूध कैसे अर्पित करूँ वह तो बछड़े का जूठा है, उन्हें फूल कैसे चढ़ाऊं, वह भी भंवरे का जूठा है। इस भजन के कथनों से जूठेपन की अवधारणा बिलकुल स्पष्ट हो जाती है।
संस्कृत में जूठा के लिए उच्छिष्ट शब्द प्रचलित है, किन्तु उससे जूठा शब्द के विकसित होने की संभावना बहुत क्षीण है। उच्छिष्ट शब्द की व्युत्पत्ति उत् + शिष्ट (शेष) यानी जो बाद में शेष रह गया हो, से मानी जा सकती है। अतः कह सकते हैं कि जूठा शब्द शायद लोक से आया होगा, यानी इसकी व्युत्पत्ति देशज मानी जा सकती है, किन्तु झूठा तो शर्तिया तौर पर संस्कृत जुष्ट्र का ही तद्भव रूप है।