झूठा और जूठा
डॉ. आर.वी. सिंह
कुछ लोग झूठा और जूठा के प्रयोग में बहुत-ही घालमेल कर जाते हैं। सच कहें तो झूठा शब्द के अर्थ-बोध में तो कोई कठिनाई नहीं है। इसका अर्थ है असत्य, यानी जो यथातथ्य न होकर, ग़लत हो। जो सही न हो। झूठा विशेषण है जबकि झूठ भाववाचक संज्ञा। जैसे यह सरासर झूठ है- इस वाक्य में झूठ संज्ञा है। वह बहुत ही झूठा आदमी है- इस वाक्य में झूठा आदमी का विशेषण है। एक झूठ को छिपाने के लिए सौ झूठ बोलने पड़ते हैं। यह कहावत सभी को मालूम है।
जूठा का व्यापक अर्थ है, जो इस्तेमाल में लाया जा चुका हो। इसका बिलकुल सटीक और संकीर्ण अर्थ है जो मुँह से खाने या पीने के बाद शेष रह गया हो। यानी जो मुँह के रास्ते पेट में उतर गया उसके बाद मुँह से छूने के बाद बचा खाने या पीने का पदार्थ जो हाथ में या बर्तन में या कहीं और रह गया हो, जैसे सेब को दाँत से काटने के बाद खाने से बच गया हिस्सा, या दूध से भरे गिलास से एक घूँट पी लेने के बाद उसमें जो बाकी दूध बच गया हो।
शबरी ने रामजी को बेर खिलाए, लेकिन हर बेर को पहले खुद थोड़ा-थोड़ा खाकर देखा कि मीठा है या नहीं। इस प्रकार उसने बेर जूठे कर दिए। यदि हम बड़े बर्तन में चम्मच डालकर खाने का पदार्थ निकाल लें, चम्मच को मुँह में डालकर सामग्री खाएँ तो चम्मच जूठा हो गया। अब हम उसी चम्मच को वापस खाद्य-सामग्री वाले बर्तन में डाल देंगे तो पूरी खाद्य-सामग्री जूठी हो जाएगी। ऐसी सामग्री जिस-जिस खाद्य-सामग्री में मिलेगी, वह समस्त सामग्री जूठी होती चली जाएगी। जूठेपन का भाव संक्रमणशील होता है। कुछ घरों में महिलाएं अपने पकाए भोजन को खुद चखकर नहीं देखतीं, बल्कि किसी छोटी कटोरी में एक-दो चम्मच निकालकर घर के किसी दूसरे सदस्य को दे देती हैं कि ज़रा चखकर बताओ कि सब (यानी नमक, मसाला, मीठा) ठीक है या नहीं। और यदि कुछ कमी-बेशी हो तो वह ठीक कर ली जाए। यदि गृहिणी ऐसा न करे और खुद ही चखकर देख ले तो यह माना जाता है कि उसने रसोई जूठी कर दी। कुछ परंपरावादी भारतीय घरों में ऐसा होता है, सबमें होता हो यह ज़रूरी नहीं। इसके विपरीत भी होता है। यानी महिलाएं जो कड़छी कड़ाही में डालकर भोज्य-पदार्थ को छौंक-बघार रही होती हैं, उसी से उँगली छुआ कर व्यंजन का कुछ हिस्सा उठाती हैं, चखती हैं और कड़छी को वापस कड़ाही में डाल देती है। और ज़ाहिर है कि यह प्रक्रिया कई बार, उसी उँगली और उसी कड़छी से दुहराई जाती है। तब भी रसोई के जूठा होने का कोई बोध उनके मन में नहीं जगता।
जिन इलाकों में पेयजल की कमी होती है, वहाँ तो अकसर और पेयजल की प्रचुरता वाले इलाकों में भी कभी-कभी लोग बोतल या जग को मुँह से लगाए बिना, आसमान की ओर थोड़ा ऊँचा उठाकर, मुँह आसमान की ओर खोलकर गटर-गटर पानी पी जाते हैं। इससे गिलास, लोटा आदि जूठा नहीं होता, यानी जूठा बर्तन माँजने के लिए पानी बहाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। लेकिन परंपरावादी हिन्दू परिवारों के लोग तो यही कहेंगे कि ऐसे पीने पर भी पेय पदार्थ जूठा हो गया, क्योंकि इस मामले में पेय पदार्थ का मुँह से सीधा सम्पर्क स्थापित हुआ।
बात चाहे जो हो, झूठा और जूठा में फर्क है। उर्दू परंपरा के लोग झूठा को झूटा भी कहते-लिखते हैं। दिल्ली के बच्चे झूला झूलते हैं या किसी सवारी पर बैठते हैं तो उसमें जो हिचकोले उनको मिलते हैं, उनके झूटा कहते हैं। यदि कोई बच्चा पहले से झूले पर बैठा झूल रहा हो और दूसरा बच्चा उसके पास झूला झूलने की गरज से जाए तो वह कहेगा कि मुझे भी कुछ झूटे दे दे, यानी मुझे भी झूले पर अपने साथ बिठा ले और दो-चार फेरा झूल लेने दे। तो झूटा और झूठा में भी अन्तर है।
न झूठा, न जूठा- हमें तो कुछ भी अच्छा नहीं लगता। मजे की बात है कि झूठा का विलोमार्थी यदि सच्चा है तो जूठे का विलोमार्थी है सुच्चा। अपने भोजपुरी इलाकों में सुच्चा को फरीच भी कहते हैं- ई एकदम फरीच हव, एके पूजा बदे धय दा। ई लइका जुठार देहले बाटें, एके लइकन के खियाय दा, नाहीं गोरुन के डार दा। साफ, स्वच्छ, अच्छा आदि शब्द भी जूठा के विलोमार्थी के रूप में इस्तेमाल किए जाते हैं, जैसे यह साफ है, इसे किसी और को दे दीजिए।
अपने यहाँ एक भजन है, जिसमें कहा गया है कि भगवान को दूध कैसे अर्पित करूँ वह तो बछड़े का जूठा है, उन्हें फूल कैसे चढ़ाऊं, वह भी भंवरे का जूठा है। इस भजन के कथनों से जूठेपन की अवधारणा बिलकुल स्पष्ट हो जाती है।
संस्कृत में जूठा के लिए उच्छिष्ट शब्द प्रचलित है, किन्तु उससे जूठा शब्द के विकसित होने की संभावना बहुत क्षीण है। उच्छिष्ट शब्द की व्युत्पत्ति उत् + शिष्ट (शेष) यानी जो बाद में शेष रह गया हो, से मानी जा सकती है। अतः कह सकते हैं कि जूठा शब्द शायद लोक से आया होगा, यानी इसकी व्युत्पत्ति देशज मानी जा सकती है, किन्तु झूठा तो शर्तिया तौर पर संस्कृत जुष्ट्र का ही तद्भव रूप है।