Thursday, 5 February 2015
गड़ना और गढ़ना
गड़ना और गढ़ना
किसी बड़ी वस्तु की सतह में छेद, गड्ढा आदि बनाकर, उससे अपेक्षाकृत छोटी वस्तु का उसमें धँस जाना गड़ना कहलाता है। गड़ने की कई दशाएं हो सकती हैं। यानी गड़ी हुई वस्तु का एक सिरा दृश्यमान भी हो सकता है और अदृश्य भी। जैसे सीताजी के पाँव में काँटा गड़ गया। हो सकता है काँटे का ऊपर वाला हिस्सा दिख रहा हो, जिसे कुरेदकर रामजी ने काँटा काढ़ दिया। हो सकता है काँटा सीताजी के पाँव की चमड़ी के अंदर छिप गया रहा हो और उसे बाहर निकालने के लिए रामजी को बबूल या किसी अन्य नुकीले काँटे की नोक से कुरेदना पडा हो।
कई बार लोग किसी हवेली, मकान, महल, किले, कोट आदि के फर्श में, मोटी दीवार आदि में खजाना गड़ा होने की किंवदंतियाँ कहते-सुनते पाए जाते हैं। किसी-किसी को नींव की खुदाई करते समय गड़ा हुआ धन हाथ लगने की बातें भी सुनने में आती हैं। कुछ लोगों में मुर्दे गाड़े यानी दफ्न किए जाते हैं। भाव है छिपाने का, दृष्टि से ओझल रखने का। इसी अर्थ-साम्य के आधार पर गड़े हुए धन को दफ़ीना भी कहा जाता है।
जब शरीर के किसी हिस्से में कोई चीज़ गड़ती है तो पीड़ा होती है। इस प्रकार उसमें पीड़ा का भाव भी जुड़ जाता है। हम प्रायः सुनते हैं कि आँख में कुछ गड़ रहा है। यानी आँख में कोई बाहरी तत्व पड़ गया है जो पीड़ा दे रहा है। किसी आसन पर बैठें या शय्या पर सोएं और उसकी सतह मुलायम न होकर कठोर तथा पीड़ाकारी हो तो हम कहते हैं कि आसन गड़ रहा है, यानी चुभ रहा है। बिस्तर गड़ रहा था, यानी मुलायम नहीं था।
गढ़ने का अर्थ बिलकुल अलग है। पत्थर के किसी टुकड़े, लकड़ी आदि को किसी तेज धार वाले औज़ार (जैसे रुखानी, छेनी, चिज़ल) या खराद आदि उपकरण से खुरच कर या रगड़कर अपने इच्छित स्वरूप में लाने की प्रक्रिया को गढ़ना कहते हैं। बचपन में हम शलाका यानी पेंसिल को पत्ती यानी ब्लेड या तेज धार वाले चाकू से गढ़ते थे, ताकि उसकी नोक बन जाए और लिखने के काम आ सके। बाँस, सरकंडे और नरकट की कलम भी गढ़ी जाती थी। बढ़ई भी लकड़ी को काटकर, गढ़कर ही फर्नीचर बनाता है। मूर्तिकार, शिल्पकार आदि अपने-अपने शिल्प के माध्यम को गढ़कर सुन्दर कलाकृतियाँ बनाते हैं। गढ़ाई के काम में सबसे प्रमुख बात यह है कि पहले वस्तु स्थूल रूप में होती है। फिर किसी धारदार उपकरण से उसकी एक-एक परत को छीला जाता है, छीलने के बाद उसकी और पतली परतें उतारी जाती हैं। इसे रंदा लगाना कहते हैं, अंग्रेजी में ग्राइंडिंग। फिर घिसाई की जाती है, पहले मोटी-मोटी और फिर बारीक। अंत में जो घिसाई होती है, वह घिसाई कम और पॉलिश कराई अधिक होती है। अंतिम घिसाई से वस्तु में चिकनापन और कई बार चमक भी आ जाती है। इस पूरी प्रक्रिया को कटिंग और पॉलिशिंग कहते हैं। इसीलिए पेंसिल छीलने को कटिंग तथा पेंसिल-छीलक उपकरण को कटर (या शार्पनर) कहते हैं।
जब कोई किसी काम को खूब अच्छे से संभल-संभलकर, धीरे-धीरे, ध्यानपूर्वक करता है तो लोग कहते हैं कि वह गढ़ाई कर रहा है। जैसे कोई बच्चा जब एक-एक अक्षर को सज़ा-सजाकर लिखता है तो हम कहते हैं कि गढ़-गढ़कर लिख रहा है। कुम्हार जब चाक पर कच्ची मिट्टी के लोंदे से बर्तन बनाता है, तो हम कहते हैं कि वह बर्तन गढ़ रहा है। गढ़ने में सुन्दरता का भाव निहित है। किसी की देहयष्टि बहुत सुन्दर हो तो हम कहते हैं कि उसकी गढ़न बहुत सुन्दर है। उसे भगवान ने फुर्सत के क्षणों में अपने हाथ से गढ़ा है।
गढ़ने के काम में गढ़नेवाले की अपनी कल्पना-शक्ति का भी बहुत हाथ रहता है। स्थूल प्रस्तर-खंड अथवा काष्ठ अथवा मृत्तिका में खुद की कोई कलात्मक सुन्दरता नहीं होती। अलबत्ता उसमें सुन्दर बनने, सुन्दर स्वरूप धारण करने की संभावनाएं ज़रूर विद्यमान रहती हैं। जब कल्पना-प्रवण कलाकार अपने सिद्ध हाथों से उसपर काम करना शुरू करता है तो स्थूल माध्यम भी सजीव हो उठता है, उसमें अन्तर्निहित सुन्दरता आकार लेने लगती है। यही स्थिति बातों यानी प्रवाद की होती है। कई बार वास्तव में कोई ऐसा प्रकरण, घटना या बात नहीं होती, जिसका कथन किया जा सके, किन्तु बातें बनाने और उन्हें प्रचारित-प्रसारित करने में महारत प्राप्त लोग अपनी उर्वर कल्पना-शक्ति से उनमें इतने आयाम जोड़ देते हैं कि अच्छा-खासा बतंगड़ बन जाता है। इसे कहते हैं कहानी गढ़ना। यह भी एक प्रकार की कला है और हर किसी के वश की बात नहीं। पिशुनता भी कला है, हमारे नारद मुनि उसके पुरोधा रहे हैं।
तो यह है गड़ना और गढ़ना का भेद।
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