Thursday, 28 August 2014

आजी यानी दादी (मराठी और भोजपुरी, दोनों में)
यह देखकर आश्चर्य होता है कि मराठी और भोजपुरी के बहुत से शब्दों का अर्थ एक ही है। ये दोनों भाषाएं जहाँ बोली जाती हैं, उन दोनों क्षेत्रों के बीच हजार से अधिक किलोमीटर की भौगोलिक दूरी है। फिर भी दोनों भाषाओं में कई शब्दों का एक ही अर्थ में प्रयोग किया जाना आश्चर्यजनक लगता है। उससे भी बड़ा आश्चर्य यह कि दोनों भोगोलिक क्षेत्रों के बीच कहीं भी उक्त शब्दों का प्रयोग उसी अर्थ में नहीं होता, जिस अर्थ में इन दो भाषाओं में होता है।
उदाहरण के लिए आजी शब्द को ही लें। मराठी और भोजपुरी (जो आजमगढ़, जौनपुर, बनारस, गाजीपुर, गोरखपुर, मऊ आदि जिलों में बोली जाती है), दोनों भाषाओं में आजी का अर्थ है दादी। 
चिपरी यानी उपला (मराठी और भोजपुरी, दोनों में)
गाय-भैंस के गोबर को पाथकर या तो लंबा आकार दिया जाता है या गोल। इन्हें धूप में सुखाकर रख लिया जाता है। गाँवों में अब भी इन्हें चूल्हे में जलाकर भोजन पकाया जाता है। कुछ लोग इन्हें ही कण्डा कहते हैं, किन्तु कण्डे संकल्पना कुछ अलग है। दरअसल मैदान में चरने गए मवेशी जो गोबर कर आते हैं, वह भ्री प्राकृतिक रूप से सूखकर जलाने के काम आता है। इसी प्राकृतिक रूप से सूखे गोबर के पिण्ड को कण्डा कहते हैं। मान्यता है कि ऐसे कण्डों को बीनकर लाया जाए और उन्हें जलाकर उस आग पर आयुर्वेदिक दवाइयाँ, अवलेह आदि तैयार किए जाएं तो वे बहुत गुणकारी होते हैं। खैर...
जो गोबर गोल-गोल, यानी रोटी की तरह गोल, किन्तु कुछ मोटे आकार में पाथकर सुखाया जाता है, उसे भोजपुरी में चिपरी कहते हैं। मजे की बात यह है कि इसे मराठी में भी चिपरी ही कहते हैं। हिन्दी में इन्हें उपले कहते हैं।
आवा यानी आओ (मराठी और भोजपुरी दोनों में)
भोजपुरी में किसी को पास बुलाना होता है, तो कहते हैं- आवा। मराठी में भी इस शब्द का यही अर्थ है।
बसा यानी बैठो (मराठी और भोजपुरी, दोनों में)
भोजपुरी और मराठी (साथ ही गुजराती व बांगला में भी-किंचित ध्वनि परिवर्तन के साथ) बसा का अर्थ है बैठो।
भोजपुरी और मराठी, दोनों भाषाओं के ऐसे बहुत से समानार्थी शब्द होंगे। इससे इन दोनों ही नहीं, बल्कि प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में पारस्परिक एकात्मकता का पता चलत है।

Sunday, 3 August 2014

कड़ाही और कढ़ाई का अन्तर

कड़ाही और कढ़ाई का अन्तर
डॉ. रामवृक्ष सिंह
कड़ाही एक गोलाकार बर्तन को कहते हैं, जिसे चूल्हे पर चढ़ाने और उतारने के लिए दोनों तरफ ऊपर की ओर कड़े लगे रहते हैं। कई कड़ाहियों में कुण्डों या कड़ों की जगह एक हत्था या हैण्डल लगा होता है। कड़ाही को अंग्रेजी में पैन कहते हैं। अर्ध-गोलाकार होना कड़ाही की खासियत है। इसीलिए कई भौगोलिक आकृतियों को भी कड़ाही के आकार की संरचना कहा जाता है, जैसे किसी निष्क्रिय ज्वाला-मुखी का क्रेटर।
कड़ाहियाँ पारंपरिक रूप से लोहे की होती थीं। कहीं-कहीं ढलवाँ लोहे और मिट्टी की कड़ाहियाँ भी होती थीं, जो गिरने पर टूट जाया करती थीं। इधर अल्युमीनियम, स्टील और मिश्र-धातुओं की कड़ाहियाँ भी बनने लगी हैं। कड़ाही का ही पुल्लिंगी है कड़ाह।
गाँवों में गन्ने का रस उबालकर धीरे-धीरे गुड़ बनाने की प्रक्रिया जिस बड़े पात्र में संपन्न की जाती है, उसे कड़ाह कहते हैं। आयुर्वेदिक कारखानों में भी कड़ाह होते हैं, जिनमें अवलेह तैयार किए जाते हैं।
पूर्वांचल के गाँवों में देवी-देवताओं के थान (स्थान) पर कड़ाही चढ़ाने की परम्परा रही है। लोग अपनी मन्नतें पूरी होने अथवा काली माई, डीह बाबा, बनसत्ती माई आदि को प्रसन्न करने के लिए कण्डे, जलावन, आटा, तेल आदि लेकर वहाँ पहुँचते हैं और वहीं पर पूड़ी काढ़कर, हलवा बनाकर देवी-देवता को चढ़ाते हैं। इसी को धार्मिक सन्दर्भों में कड़ाही चढ़ाना कहा जाता है।
इसके विपरीत है कढ़ाई। कपड़ों पर सुई धागे की मदद से विभिन्न प्रकार की आकृतियाँ उकेरने की कला को कहते हैं कढ़ाई अथवा कशीदाकारी। लखनऊ में नवाब वाज़िद अली शाह के ज़माने में जो कला खास तौर से परवान चढ़ी थी, वह थी चिकनकारी की कला। चिकनकारी एक प्रकार की कढ़ाई है जो कुर्तों, कुर्तियों, दुपट्टों आदि पर की जाती है। इसी प्रकार गुजरात के कच्छ में घाघरों और चोलियों पर बड़ी ही कलात्मक कढ़ाई की जाती है। राजस्थान में भी यह काम खूब होता है। महिलाएँ अपने खाली समय में कढ़ाई के माध्यम से अपनी रचनात्मकता और कलात्मक हुनर को आकार देती हैं। गुजरात में तो  कई चोलियाँ ऐसी कढ़ाई वाली होती हैं, जिनके दाम पच्चीस से पचास हजार रुपये तक हो सकते हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी ये चोलियाँ महिलाएं एक दूसरे को उपहार में देती हैं।
कढ़ाई के बीच-बीच में शीशे, सलमे-सितारे आदि जड़कर ऐप्लीक वर्क का काम किया जाता है। इससे कपड़ों में और भी निखार आ जाता है। ज़रूरी नहीं कि ये कपड़े केवल पहनने के काम आएँ। कहीं-कहीं ऐसे काम से युक्त चादरों, मेजपोशों और वॉल हैंगिंग्स का भी खूब चलन है।

तो ये था कड़ाही और कढ़ाई का अन्तर।

Saturday, 2 August 2014

गूँथना और गूँधना

गूँथना और गूँधना
डॉ. रामवृक्ष सिंह
3 अगस्त 2014 के दैनिक अमर उजाला (लखनऊ संस्करण) में एक खबर छपी है- आटा गूंथ रहा पीयूष...। यह खबर अपनी ही पत्नी की हत्या करने के आरोप में कानपुर के एक कारागार में बंद एक विचाराधीन कैदी के बारे में है।
खबर तो आम है, लेकिन इसके शीर्षक में प्रयुक्त गूँथना धातु के त्रुटिपूर्ण प्रयोग की ओर पाठकों का ध्यान दिलाना चाहता हूँ। दरअसल गूँथना और गूँधना, दो अलग-अलग अर्थ देने वाली क्रियाएं हैं। फूलों को जब किसी सुई-धागे की मदद से आपस में पिरोकर माला बनाई जाती है तो उस क्रिया को गूँथना कहते हैं। फूलों की माला गूँथी जाती है। इसी प्रकार सिर के बालों को जब चोटी के रूप में आकार दिया जाता है तो चोटी गूँथना कहलाता है।
जब दो या अधिक व्यक्ति आपस में कुश्ती लड़ते हैं, या शारीरिक रूप से एक-दूसरे को पकड़कर लड़ने लगते हैं तो लोग कहते हैं कि वे गुत्थम-गुत्था हो गए। यहाँ भी आपस में जुड़ने का भाव है।
इसके विपरीत सूखे पिसान या आटे को जब पानी, तेल आदि द्रव मिलाकर, साना जाता है और लोई तैयार लायक बनाया जाता है(जिसे अंग्रेजी में डो बनाना कहते हैं), तब वह प्रक्रिया गूँधना कहलाती है। कबीर ने इसे ही रूँधना (कदाचित रौंदना) कहा है। कहते हैं कि पाव बनाने वाले बड़े कारखानों में पाव रोटी बनाने के लिए शायद आटे को स्वच्छ पैरों से रौंद-रौंदकर गूँधा जाता था, इसीलिए पाव रोटी को यह नाम मिला। ईंट के भट्टों पर ईट बनानेवाले कामगार देर शाम को मिट्टी तोड़कर उसे पैरों से सान या गूँध लेते हैं, फिर सबेरे उसी गूँधी हुई मिट्टी से ईंटें पाथते हैं।

तो गूँथने और गूँधने में यह अन्तर है।

Monday, 14 July 2014

'घोम' यानी 'होम' यानी भारतीय आर्यों के लिए 'आग' और अंग्रेज-आर्यों के लिए 'घर'

'घोम' यानी 'होम' यानी भारतीय आर्यों के लिए 'आग' और अंग्रेज-आर्यों के लिए  'घर'


प्राचीन काल में, जब आर्य लोग कैस्पियन सागर के आस-पास रहते थे, तब भी आग का उनके लिए विशेष महत्त्व था। वह महत्त्व आज भी कायम है। आग आज भी हिन्दू जीवन-पद्धति में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है, इतना महत्त्वपूर्ण कि उसे एक देवता -अग्नि देवता- का मुकाम हासिल है।
तो उस ज़माने में जब इन्सान के जीवन के लिए आग बेहद ज़रूरी थी, किन्तु उसे सरलता से सुलगाने या जलाने का कोई साधन उपलब्ध नहीं था, उस समय लोग घरों में आग जिला कर रखते थे। हममें से जिन लोगों का सम्बन्ध ठेठ गाँव से है वे बखूबी जानते हैं कि अपने घरों में किसी बोरसी, चूल्हे आदि में आग को राख के नीचे कैसे जिलाए रखा जाता था और ज़रूरत पड़ने पर उसी से चूल्हा जला लिया जाता था। उसी चूल्हे की लौ से लालटेन, ढिबरी, बीड़ी और चिलम तक जला ली जाती थी। माचिस को हिन्दी में 'दिया-सलाई' कहते थे और संक्षेप में 'सलाई'। शायद दिया-सलाई अंग्रेजी मैच-स्टिक का ही हिन्दी उल्था था। तेलुगु में माचिस को अग्गि-पेट्टि यानी आग जलानेवाली पेटिका कहते हैं। खैर... माचिस खरीदना और उसे तथा उसकी तीलियों को नमी से बचाकर जलने लायक बनाए रखना बहुत टेढ़ा काम था। जिन लोगों को कभी सीलन भरे घर में रहने और लाख रगड़ने के बाद भी माचिस न जला पाने का अनुभव प्राप्त है, वे इस बात को खूब अच्छी तरह समझते होंगे। ग़रीब हिन्दुस्तानियों के लिए माचिस एक विलास से कम वस्तु नहीं थी। तो आग कैसे जले? आग के लिए हमारे बचपन में एक कमरा मुकर्रर होता था, जिसमें मिट्टी के बरतन में राख के ढेर में आग छिपी रहती थी। अक्सर उस आग के ऊपर दूध औटाया जाता था। पूरे दिन औट-औट कर दूध लाल हो जाता था। फिर उसी दूध की दही जमती थी (कुछ लोग दही जमता था भी कह सकते हैं- जिसमें हमें कोई आपत्ति नहीं)।
आग वाला घर और दूध वाला घर (घर यानी कमरा या कोठरी)। अपने गाँवों में यह रिवाज़ आज भी है। वहाँ एक-एक मकान में आठ-दस बारह-चौदह, यानी इफरात कमरे होते हैं और आग जिलाए रखने के लिए एक कमरा अलग से निर्धारित करना कोई बड़ी बात नहीं होती।
तो आग वाला कमरा या घर- कैस्पियन सागर के आस-पास रहने वाले आर्यों के समय से हमारे जीवन का एक हिस्सा रहा। उस समय आग वाले घर के लिए प्रचलित शब्द था- घोम्।
जब आर्य कैस्पियन सागर से इधर उधर फैले और कालान्तर में उनमें से कुछ भारत पहुँचे और कुछ इंग्लैण्ड, तब घोम् शब्द किंचित ध्वनि-परिवर्तन के साथ अंग्रेजी और संस्कृत, दोनों भाषाओं में 'होम' बन गया। लेकिन अंग्रेजों ने 'होम' से घर वाला अर्थ ले लिया, जबकि भारत आये हिन्दुस्तानी आर्यों ने आग वाला।
आर्यों के जीवन में यज्ञ का बहुत महत्त्व था। यज्ञ और बलि, इन दोनों की अति हमें दिखाई देती है कर्म-काण्ड प्रधान हिन्दू जीवन में, जो बाद में बहुत हिंसक हो गई। जब आर्य घुमक्कड़ चरवाहे नहीं रहे और उन्हें कृषि कार्यों के लिए पशुओं, खासकर बैलों व दूध आदि के लिए गायों की ज़रूरत महसूस हुई तो उन्होंने हिंसा प्रधान यज्ञ-बहुल कर्मकाण्डी जीवन पद्धति को छोड़कर अहिंसा-प्रधान बौद्ध और जैन धर्म को अपना लिया।
बिना आग के यज्ञ नहीं हो सकता था। हम सब जानते हैं कि हवन कुण्ड में आम की लकड़ी जलाकर उसमें आहुतियाँ डालना और मन्तोच्चार करना ही यज्ञ का प्रमुख कार्य है। इसी को होम कहते हैं। किन्तु होम का प्राथमिक तत्व है आग। बिना आग के होम नहीं हो सकता। होम में हाथ जलाने का मुहावरा प्रचलित है। यानी किसी अच्छे उद्देश्य के लिए आग जला कर यज्ञ करना, और उसमें अपना नुकसान कर लेना।
इस प्रकार रही घोम् से होम तक की यह यात्रा। घोम् शब्द ही अंग्रेजी और  संस्कृत- हिन्दी, दोनों में होम् बना, किन्तु एक जगह घर के अर्थ में तो दूसरी जगह आग या हवन के अर्थ में।

Friday, 11 July 2014

बजट

बजट
प्राचीन फ्रेंच में चमड़े के एक विशेष प्रकार के थैले को bouge  कहते थे। फ्रेंच में यह शब्द लैटिन के bulga  से आया। उसका अर्थ भी चमड़े का थैला ही था। मूलतः इस शब्द का अर्थ था चमड़े का बटुआ या थैली, जिसमें आम तौर पर मुद्रा, धन आदि रखा जाता था। प्राचीन काल से ही सिक्कों को छोटी झोली, थैले, बटुए आदि में रखकर साथ ले जाने की परम्परा रही है। धनवान लोग उसी में अपने काम भर मुद्राएं लेकर निकलते और उसी में से निकाल-निकालकर खर्च करते थे। फ्रेंच के bouge का रूप-विस्तार bougette  में हुआ, जहाँ से विकसित होकर यह अंग्रेजी का budget बन गया। 18वीं सदी में खजाने की देखभाल करनेवाले अधिकारी जब अपने आय-व्यय का वार्षिक लेखा-जोखा प्रस्तुत करते तो कहा जाता था कि उन्होंने अपनी पोटली खोली या अपना थैला खोला। ध्यातव्य है कि अपने देश में कुछ-कुछ यही अर्थ-भंगिमा पिटारे या पिटारी के साथ भी जुड़ी है, जिसका संक्षिप्त रूप बटुआ होता है। 19 सदी में इस शब्द का अर्थ-विस्तार हुआ और यह सरकारी आय-व्यय की अर्थ-मर्यादा से बाहर निकलकर अन्य अर्थों में भी इस्तेमाल होने लगा।
आधुनिक अर्थ-व्यवस्था में, शासकीय सन्दर्भों में बजट का विशेष महत्त्व है। बजट में सरकारें यह निर्धारित और सार्वजनिक रूप से घोषित करती हैं कि अगले एक वर्ष के दौरान वे किन-किन मदों पर खर्च करेंगी और उन खर्चों की पूर्ति के लिए धन किन-किन स्रोतों से आएगा। आय-व्यय की विस्तृत जानकारी देते हुए वे आनुषंगिक रूप से अपनी प्राथमिकताओं को भी परिभाषित करती हैं। साथ ही देश की अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों की विकास-दर, सकल घरेलू आय, उत्पादन आदि का आकलन भी बजट का आनुषंगिक हिस्सा रहता है। व्यय की मदों व तत्सम्बन्धी धन की राशि का निर्धारण और आय-कर, उत्पाद-शुल्क, आयात-निर्यात व्यय, विभिन्न अधिभारों आदि का विस्तृत आकलन भी बजट में प्रस्तुत किया जाता है।
लोक-जीवन में बजट की कई अन्य अर्थ-छवियाँ भी हैं, जैसे यदि कोई मद या सेवा बेचने या उपलब्ध करानेवाला खरीददार से पूछे कि आपका बजट कितना है, तो इसका आशय यह जानना होता है कि आप इस पण्य अथवा सेवा के लिए कितना धन व्यय कर सकते हैं। इसी प्रकार यदि कोई कहे कि मेरा सारा बजट गड़बड़ा गया, तो आशय है कि एक ही मद पर इतना व्यय हो गया कि अब बाकी मदों के लिए पर्याप्त राशि नहीं बची।
बजट से कई बार दाम की अल्पता का भी बोध होता है. जैसे बजट होटल- यानी सस्ता होटल।
बजट का हिन्दी प्रतिशब्द है- आय-व्ययक, जो बिलकुल सटीक है, और बजट से अधिक अर्थपूर्ण है।

तो आइए कहें कि आज वित्त मंत्री श्री जेटली ने देश का आय-व्ययक प्रस्तुत किया।

Thursday, 3 July 2014

बीमा यानी बीम (फारसी) यानी डर

बीमा
बीमा शब्द फारसी के बीम से बना है, जिसका अर्थ होता है भय या डर। बीमा हम इसलिए कराते हैं कि बीमित वस्तु अथवा व्यक्ति के अंग, जीवन आदि को किसी प्रकार की आंशिक अथवा पूर्ण क्षति पहुँचे तो उस क्षति की कुछ हद तक भरपाई हो सके।
यदि हमें अपने किसी अंग, जीवन अथवा वस्तु, वाहन, सम्पत्ति आदि के क्षतिग्रस्त अथवा पूर्णतया नष्ट होने का भय न हो तो हम बीमा क्यों कराएँ! लिहाज़ा बीमा का केन्द्रीय तत्व है भय।
जीवन बीमा वाले कहते हैं, बीमा आग्रह की विषयवस्तु है- Insurance is a matter of solicitation.
हम कहते हैं बीमा डर को पार पाने का साधन है। जिसे जितना अधिक डर लगता है वह उतना बड़ा बीमा कराता है (बशर्ते वह बीमा का प्रीमियम भरने में सक्षम हो)।
धन्धेबाज और चालू लोग हर जगह अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं। बीमा-क्षेत्र में भी ऐसा होता है। पता चला कि अपने खाली गोदाम में आग लगा दी और लाखों रुपये का दावा ठोक दिया। गाड़ी को खुद ही जला दिया, सर्वेयर से मिलकर बीमा कंपनी से पूरा पैसा वसूललिया। और तो और कुछ लोग बीमे की राशि पाने के लिए अपने नजदीकी लोगों की दुर्घटना तक करा डालते हैं।
बहरहाल, यदि डर न हो तो कोई बीमा न कराए।
कुछ लोग सोचते हैं कि बीमा एक प्रकार का निवेश है। बीमा कंपनियाँ भी इस तरह की योजनाएं लाकर लोगों को आकर्षित करती हैं। सच्चाई यह है कि बीमा प्रीमियम पर जो भी राशि आपको मिलती है, वह साधारण मीयादी जमा (फिक्स्ड) डिपॉजिट से भी बहुत कम (ब्र्याज) दर पर मिलती है। इसलिए यह एक भ्रामक अवधारणा है कि बीमा कोई निवेश है।
मैं एक बीमा कंपनी के कार्यालय में गया तो देखता हूँ कि एक एएओ के पीछे ऊपर दीवार पर यमराज की तस्वीर टँगी है। यम का डर बड़े-बड़ों को सीधा कर देता है। मृत्यु न हो तो लोग सारे धर्म-कर्म छोड़ दें। ज्यादातर लोग सीधी राह न चलें और सारा समाज अनाचार का आगार बन जाए। 
किसी भले आदमी ने परलोग, स्वर्ग और बैकुण्ठ की परिकल्पना करके उसे पाने के लिए सदाचार और सन्मार्ग की अवधारणा को जन्म दिया। इसी प्राप्य की आकांक्षा में लोग कुमार्गी से सन्मार्गी बनने को प्रेरित हुए। 
यही हाल बीमा का है।
आदमी सोचता है यदि दुर्दैव से मेरी मृत्यु हो गई तो? तो मेरे घर-परिवार का खर्च कैसे चलेगा? इसलिए बीमा कंपनी वाले उसे पट्टी पढ़ाते हैं- यदि आपकी आय इतनी है तो कम से कम इतनी राशि का बीमा अवश्य कराएँ, ताकि दुर्भाग्य से आपके न रहने पर भी आपके परिवार को इतनी रकम तो हर महीने मिलती ही रहे।
बड़ी-बड़ी नामी गिरामी हस्तियाँ अपने शरीर के विभिन्न अंगों, यहाँ तक कि नाखून आदि का भी बीमा कराते हैं, क्योंकि उन्हें डर होता है कि यदि वह बेशकीमती अंग न रहा तो वे भी कौड़ी के तीन हो जाएँगे।
जीवन-बीमा की त्रासदी यह है कि उसकी रकम पाने के लिए व्यक्ति को मरना पड़ेगा। और किसी भी कीमत पर मरना कौन चाहता है! 

Monday, 30 June 2014

लूट

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लूट

सेल लगाकर कपड़े, साड़ियाँ, स्वेटर आदि बेचने वाली कंपनियाँ अपने ग्राहकों को लुभाने के लिए हिन्दी अखबारों में विज्ञापन देती हैं, जिनमें कहा गया होता है कि आइए और लूट ले जाइए, हजार रुपये वाली साड़ी डेढ़ सौ में, तीन हजार रुपये का कार्डिगन तीन सौ में आदि-आदि। लूटने के काम को आम तौर पर अपराध माना जाता है। कानून के विशेषज्ञ बेहतर बता सकते हैं कि लूट के लिए भारतीय दंड संहिता की कौन-सी धारा लगती है। लेकिन सेल के विज्ञापन में लूट शब्द का इस्तेमाल जिस प्रकार किया जाता है, उससे तो यही लगता है कि लूटना कोई बहुत ही अच्छा काम है।

कबीर-साहित्य में भी ठगिनिया लूटल हो कहा गया है। यानी वहाँ भी लूट शब्द का इस्तेमाल है। किन्तु उस समय लूट शब्द का अर्थ गर्हित था। बाद में लोगों ने कहा- राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट। यहाँ तक आते-आते लूट शब्द में सकारात्मकता जु़ड़ गई। ऐसी सकारात्मकता, जिसने लूटने के काम से अपराध का भाव हटा दिया।

सन चौरासी के सिख-विरोधी दंगे के समय हमने देखा कि लोग सिखों की दुकानें, गोदाम, घर आदि कैसे लूट रहे थे। उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं था कि जो माल वे ले जा रहे हैं, उसका क्या उपयोग करेंगे। उन्हें तो बस माल ले जाने से काम था। 

लूटने की मानसिकता इसी को कहते हैं। जो हाथ आए, लिए चलो। इसका क्या करना है, बाद में सोचा और देखा जाएगा। सेल में भी अकसर यही होता है। खुद हम कई बार ऐसे-ऐसे कपड़े सेल से समेट लाए हैं, जिनका हमारे परिवार के किसी सदस्य के लिए कोई उपयोग नहीं था। बाद में वे कपड़े जान-पहचान वाले लोगों को टिकाने पड़े, ताकि वे उन्हें अपने बच्चों को पहना सकें। 

भारतीय दंड संहिता में चाहे लूट के लिए धाराएँ मुकर्रर हों, किन्तु हमारे समाज का आम आदमी लूट में कोई बुराई नहीं देखता। इसीलिए, जब मौका मिलता है, लोग लूटना शुरू कर देते हैं। तेल का टैंकर पलट गया, तेल लूट लो। ट्रेन दुर्घटना हो गई, सवारियों का सामान लूट लो। किसी की पतंग कट गई, उसकी सद्दी और माँजा लूट लो। माल गाड़ी किसी गाँव के पास खड़ी हो गई और कोई डिब्बा खुला मिल गया, उसमें रखा सामान लूट लो। कोयला लदी गाड़ी कहीं गाँव-देहात में रुक गई, कोयला लूट लो। यही हमारा चरित्र है।

इस चरित्र को लेकर जब लोग किसी ऐसी जगह पहुँच जाते हैं, जहाँ लूटने-पीटने की अपार संभावनाएं हों तो वे वहाँ भी लूटने लगते हैं। चूंकि लूटने में हमारे समाज को कोई बुराई नहीं दिखती, इसलिए लूटने वाले लूटते रहते हैं और लुटने वाले लुटते रहते हैं। दुष्यन्त कुमार ने इसीलिए लिखा था-
दुकानदार तो रस्ते में लुट गए यारो
तमाशबीन दुकानें सजा के बैठ गये।

जिसे मौका मिलता है, जहाँ मौका मिलता है, लूटने में जुट जाता है। अपने देश का कोई नारा नहीं है। होगा तो भी इतना प्रचलित नहीं है कि सबकी जुबान पर चढ़ जाए। देश के गण्य-मान्य लोगों का आचरण देखकर तो हमें लगने लगा है कि अपने देश का नारा होना चाहिए- लूट लो।